क्या कहूँ इंसान को
क्या कहूँ इंसान को क्या हो रहा है
हर घड़ी ईमान अपना खो रहा है
गिर गया है ग्राफ़ मानवता का नीचे
अपने नैतिक मूल्य मानव खो रहा है
अब नहीं है दर्द की पहचान मुमकिन
हँसते-हँसते आदमी अब रो रहा है
आधुनिक बनने की चाहत में कहीं तू
कांटे राहों में किसी के बो रहा है
घुल गए हैं पश्चिमी संस्कार इतने
नाच बेशर्मी का हरदम हो रहा है