क्या करते ?
शिकायत हाकिमे शहर से किसकी करते,
मुनासिब धर्म यही अब हिजरत करते ।
धूप-छांव तो चलता रहता है अक्सर,
फिलहाल हम भूख का चिंतन करते।
फितरत उनकी वो सियासत करते,
हम कितना पर आवभगत करते?
जिंदगी गर घर पर होती मयस्सर,
क्यों रूख अपना हम भी उधर करते?
मजदूर हैं हम बस मजदूरी करते,
लग रहा उन्हें हम तो मजबूरी करते।
पेट मगर मानता नहीं मजबूरी को,
मजबूरन घर वापसी सोचा करते।
फर्क पड़ेगा भले न वो चिंतन करते,
दिन बहुरने का हम मनन करते।
लौटने को नहीं चाहेगा दिल फिर पर,
मजबूर…… दिल का कहां दर्शन करते ?