बादल
उड़े हुए धुओं का छल हूं,
अदृश्य बूंदों का जल हूं,
कुछ देर श्वेत रंग से लुभाऊंगा,
आसमान में फिर गूंज मचाऊंगा !
गरजते- बरसते देखा होगा,
बनते – बिखरते देखा होगा,
चलते – थमते भी देखा होगा,
शायद ही मेरे बारे में सोचा होगा !
पल भर में सैंकड़ों बूंदों का घर,
सबको समेट के एक सुंदर शिखर,
अगले पल फिर बिखर जाऊंगा,
जहां से आया हूं वहीं समा जाऊंगा।
© अभिषेक पाण्डेय अभि