कौन है ज़िंदा ……
कौन है ज़िंदा ……
कौन है ज़िंदा
वो मैं,जो सांसें लेता है
जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण में नज़र आता है
जो झूठे दम्भ के आवरण में जीवन जीता है
या
वो मैं जो अदृश्य हो कर भी सबमें समाया है
न जिसकी कोई काया है
न जिसका कोई साया है
कितना विचित्र विधि का विधान है
एक मैं, नश्वरता से नेह करता है
एक मैं, अमरत्व के लिए मरता है
मैं के परिधान में जो मैं ज़िंदा है
वही प्रभु का सच्चा परिंदा है
दुनियावी मैं को दुनियावी इंसान ले जाते हैं
भस्म होने तक उसे शमशान में जलाते हैं
उसकी भस्म गंगा में बहाते हैं
चार आंसूओं से रिश्तों को निभाते हैं
एक वज़ूद को इतिहास बनाते हैं
एक मैं को चार बन्दे नहीं, स्वयं प्रभु ले जाते हैं
उसे भस्म नहीं, बल्कि अमर बनाते हैं
उसे पुनर्जन्म का आवरण पहनाते हैं
मैं और मैं का ये चक्र यूँ ही चलता रहता है
एक सदा भस्म होता है एक अमरत्व पाता है
मगर जीव इस भेद को कहाँ समझ पाता है
बस साँसों के आने-जाने को ही वो जीवन समझता है
जिस दिन वो मैं और मैं का भेद पा जाएगा
सच, वो जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा जाएगा
फिर जिसका वो अंश है उसमें समा जाएगा
सुशील सरना