कौन है इस जग मे अपना……
कोई नही है इस जग मे अपना
सब मिथ्या है सब माया है
किसी ने स्नेह का स्वांग रचा
किसी ने शब्दों से भरमाया है
पल पल बीत रही जिंदगी
चारों ओर छल कपट का साया है
खुदा से खुदी कर ले ऐ बंदे
इंसान इंसानियत बेच खाया है
न भूख रही न प्यास रही
रिश्तों की न कोई साख रही
मर्यादा को लाघं रहा है ऐसे
बाकी कोई शर्म न लाज रही
देख बूड़े माँ बाप की आँख मे आँसू
अब इस जग से न कोई आस रही
शोर मचा है खुद की तारीफों का
जैसे इज्जत का बाजार सजा है
दूर तलक नजर दौड़ा ले शहर मे अपने
लगता है ऐसा जैसे विराने मे खड़ा है
सत्य की आवाज दबा दी जाती है
झूठ सच का नाकाब ओढ़ खड़ा है
मीठी मीठी बातों मे फुसलाकर
साजिशों का चक्रव्युह रचा है
कलयुग की इस महाभारत मे फँसे
अभिमन्यु को चक्रव्युह का भेद पता है
कोई नही है इस जग मे अपना
सब कुछ जान भी तू “अंजान” ही रहा है……..
#अंजान……