कौन सी अपनी कमाई जा रही है
कौन सी अपनी कमाई जा रही है।
बाप की दौलत लुटाई जा रही है।
जो बुजुर्गों ने बनाई थी यहाँ पर,
खाक में इज्जत मिलाई जा रही है।
सभ्यता की बात अब मैं क्या कहूँ जी,
लोभ में बेटी जलाई जा रही है।
आजकल ये छल रहे वादे चुनावी,
जाल में मछली फँसाई जा रही है।
हाथ में अब राष्ट्रवादी ढोल लेकर ,
क्रांति की हर लौ दबाई जा रही है।
बुझ गये चुल्हे गरीबों के घरों के,
ईद गलियों में मनाई जा रही है।
हो रही हर बात पर कोरी सियासत,
लास पर रोटी पकाई जा रही है।
‘सूर्य’ तुम रहना जरा औकात में अब,
आग दरिया में लगाई जा रही है।
आदमी अंधा हुआ निज स्वार्थ में यूँ,
कश्तियांँ खुद की डुबाई जा रही है।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा सूर्य