‘कौन पिरोये मनका को’
अपलक जागे निशा अधूरी, ढूँढे खोये मनका को ।
बिखरे मोती यहाँ वहाँ फिर,कौन पिरोये मनका को ॥
नयन करें बरसात अधूरी, चाँद साथ कब चल पाये?
ठिठक-ठिठक बिजली गरजे, और नभ भी आँसू छ्लकाए ॥
ओझल जबसे प्रिय पलकों से, बोध डुबोए मनका को ।
बिखरे मोती यहाँ-वहाँ फिर, कौन पिरोये मनका को ॥
किरणे नव-उल्लासित छेड़ें, मधुर तान वातायन से ।
प्रणय झाँक अभिवादन करता, पुष्पित धरा लता वन से ॥
इंद्रधनुष सपने मुखरित हैं, साँझ सॅंजोंये मनका को ।
बिखरे मोती यहाँ वहाँ फिर, कौन पिरोये मनका को ॥
प्रिय स्मृतियाँ छुपी लगी हैं, विगत आयु के घन-वट पर।
और तंरगे उछ्ल-उछ्ल कर, हलचल भरती उर-घट पर ॥
विरह भरा है नेह कलश, कुछ छ्लक भिगोए मनका को ।
बिखरे मोती यहाँ वहाँ फिर,कौन पिरोये मनका को ॥
क्यों है इतनी दीर्घ प्रतीक्षा? भय देती कटु यामिनी।
शून्य निहारे अपलक किसको, प्रेमातुर मधु दामिनी ॥
सिंधु सरीखा दुःख बह पड़ता, जो धोए मन मनका को ।
बिखरे मोती यहाँ वहाँ फिर, कौन पिरोये मनका को ॥
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ