कौन जाने (गीतिका)
कौन जाने
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जा रहा किस ओर मानव कौन जाने।
क्यों उसे हैं इस धरा पर ज़ुल्म ढाने।
भर गया हर ओर जहरीला धुआं है।
नील नभ से लुप्त हैं बादल सुहाने।
ग्रहण लगता जा रहा सुन्दर धरा को।
विष उगलते रात दिन हैं कारखाने।
अर्थ का कैसा भयानक व्याकरण है।
चल पड़े हैं श्वास की बोली लगाने।
आज परिभाषा तरक्की की बदल दो।
इस धरा पर हैं हमें जीवन बचाने।
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– सुरेन्द्रपाल वैद्य, २८/०४/२०२१