कोहरा
कोहरा
लाख समझाया पर न माना,
देखो अब दिल रो रहा।
कैसे अपना हाथ थामे कि घना है कोहरा।
हमने सोचा हमने तो जीत ली है बाज़ी,
प्यार की।
ना समझ थे हम सुनो, हां हम फकत थे मोहरा।
क्यों? धुंधला सी गई है अंबर की ये नीलम चादर
क्या चहूं ओर छाया है घना कोहरा ।
वातावरण-परिवेश पर ढक गई है परतें प्रदूषण की
नहीं रहा निज देश में अब धूंध का वो कोहरा।
आँखें हैं मजबूर सी और हृदय में टीस सी,
सोचते हैं बेबसी से, है ये क्या हो रहा।
वायु दूषित,सांसे दूषित हुए दूषित विचार भी,
कुछ अलग नहीं सुन तू मानव,
खुद पाप अपना ढो रहा।
सारे रिश्तों पर है छाया,
दिखावे का नूतन कोहरा।
नीलम शर्मा