कोहरा और कोहरा
आप से मिलने जाना था मुझे, आपके आमंत्रण पर
क्या बताऊं- कैसे आऊं ? कोहरा है बड़ा ही तगड़ा ।
बेशर्म होकर पसरा है , दूर दूर तक घना कोहरा
शीत -ठंड जान लेवा है, कोहरा है इतना गहरा ।
उठता हूं, बैठता हूं, सोता हूं, जागता हूं, क्या करूं?
भेद नहीं पाता हूं, बाहर कोहरे का है सख्त पहरा ।
कोहरे ने कैद कर लिया है, लेकर अपने गिरफ्त में
सर्दी का सागर है, सागर से भी गहरा और गहरा ।
लिहाफ छोड़ नहीं पाया हूं अबतक, चाहा हूं कई बार
”चाय तैयार है” सुनकर भी, हो गया हूं,जैसे बहरा ।
जो गर्म कर दे मेरे तन -बदन को जिस्म की आग से
तलाशता हूं वह आदमी, बंजारा मुसाफिर जो ठहरा ।
कोहरा होगा और भी गहरा, कोई हारा सकता नहीं
सब कहते हैं, सूरज ने ही छिपा लिया है अपना चेहरा ।
शीत, ओस और कुहासा जब और भी गहराता है
तो बनता है कोहरा,डंसता नहीं है, लगता है कोबरा ।
पास ही में रखा है हीटर, अपनी उपस्थिति दिखाता है
हारकर बाजी अपनी जैसे, बैठा हो शतरंज पर मोहरा ।
#############################
@मौलिक रचना – घनश्याम पोद्दार
मुंगेर