कोलाहल
इन सूनी आँखों मे अब पहले जैसी नींद कहाँ?
जागा रातों जिसकी खातिर वो मनमीत कहाँ?
स्याह रातों की गहराई अब मन को भाती है।
डरने वाले नही हम और देखो भयभीत कहाँ?
जाने क्यूँ लोग पहले किसी को अपनाते हैं?
फिर ठुकरा देते हैं,शायद पहली सी प्रीत कहाँ?
भाग रहे हैं सब जीवन के इस कोलाहल मे,
इस दुनिया मे अब पहले जैसा संगीत कहाँ?
पक्छियो का सुबह शाम का कलरव नही !
गैसो के उत्सर्जन से भूमंडल भयभीत कहाँ?
बोधिसत्व कस्तूरिया एडवोकेट ,कवि,पत्रकार
202,नीरव निकुजं,सिकंदरा आगरा-282007
मो:9412443093