कोरोना त्रासदी
वेंटिलेटर पर जूझ रहा था
हाथों में फोन थाम के
बाप साहस दे रहा था
माँ की सिसकिया रोक के ।
खिड़कीयों से बाहर देखता है
पसरा है सन्नाटा घुप्प सा
कुत्ते-बिल्ली सड़क पर रो रहे हैं
अब नही कोई क्यों शोर सा..?
ये क्या हुआ संसार को…?
हंसते मचलते इंसान को..?
साँसें थम ते ही गिर गया
फोन उसके हाथ से
प्लास्टिक में दफ़्न किया
माँ-बाप से दूर आखिरी स्पर्श से ।
मास्क में अकेले रो रहे थे
बेटे की तस्वीर चूमकर कर
मजबूर डॉक्टर स्तब्ध थे
कोरोना को कयामत का द्वार सोचकर ।
ये ईर्ष्या-लिप्सा का प्रहार है
अब इंसान ही लाचार है ।
” प्रशांत सोलंकी ”
नई दिल्ली.