कोरा संदेश
कोरा संदेश
आकाश में उमड़ते काले बादलों ने सुबह से हीं सूरज को ढक कर रखा था। हवा की गति सामान्य से थोड़ी अधिक तो थी, पर आंधी का अभी भी शहर को इंतज़ार था। शहर के उत्तर-पूर्वी इलाके में अवस्थित उस सफ़ेद रंग की कोठी के बरामदे में, अखबार की आर लिए एक बुजुर्ग अपनी आराम कुर्सी पर बैठे थे। सामने उनके बागीचे में अनगिनत खुशबूदार पौधे और बड़े वृक्ष हवा की गति साथ नृत्य कर रहे थे। उन बुजुर्ग की उम्र लगभग पैंसठ-सत्तर साल के बीच की होगी। उनका रंग गेंहुआ था, चेहरा गोल पर चेहरे पे झुर्रियां इतनी थी, की ऐसा लगता था किसी ने कागज़ के किसी पन्ने को तोड़-मरोड़ कर उससे उनका चेहरा बनाया हो। सर पर बस गिनती मात्र के सफ़ेद बाल थे। उनकी आँखें भूरे रंग की थीं, और उसपर पर मोटा सा चश्मा चढ़ा था। उनकी कुर्सी के पास हीं चलने वाली छड़ी भी रखी हुई थी। ये बुजुर्ग थे, सेवानिवृत खंड विकास अधिकारी ( बी.डी.ओ.), माधव मिश्रा।
माधव जी ने अखबार की सारी ख़बरों को देखने के बाद हलके से अखबार को सामने पड़ी मेज़ पर पटका और आसमान की तरफ रुख कर शून्य में देखने लगे। कॉफ़ी की मजबूत महक़ जब उनके ज़हन में पड़ी, तब जाकर माधव जी की तन्द्रा भंग हुई। उन्होंने नज़र घुमाई तो देखा उनका पैंतीस वर्षीय गोल-मटोल नौकर, भीम सिंह हाथों में कॉफ़ी की ट्रे लिए खड़ा था और उनको घूर रहा था। उनसे नज़र मिलते हीं भीम सिंह ने कहा,
“देख लिया बिना बारिश वाले बादलों को, महीने भर से बस यही चल रहा है, आते हैं धूल उड़ाते हैं और मिट्टी को प्यासा हीं छोड़कर उड़ जाते हैं। इंसान के साथ-साथ अब तो मौसम भी दग़ा देने लगे हैं।”
माधव जी ने मुस्कुरा कर कहा,
“ये सब ग्लोबल वार्मिंग का असर है भीम।”
भीम सिंह ने अपनी आँखों को बड़ा किया और चकित स्वर में कहा,
“कौन सी बमिंग?”
माधव जी ने एक गहरी सांस ली और कहा,
“तुम रहने दो। ये बताओ सब उठ गए?”
भीम सिंह ने अपने बाएं कंधे पर रखे धारीदार तौलिये को दाहिने कंधे पर रखा, और कहा,
“जी मालिक, शेखर भैया तो सुबह हीं उठे थे और अबतक तो दफ़्तर पहुँच भी गए होंगे, शिशिर भैया नाश्ते की मेज पर हैं। दोनों भाभियाँ तैयार हो रहीं हैं, और बच्चे स्कूल चले गए। अब बस थोड़ी देर की बात है, बस मैं और आप बचेंगे यहां।”
माधव जी ने “हम्म” शब्द का उच्चारण किया और भीम सिंह को जाने का इशारा दिया। माधव जी ने कॉफ़ी की पहली चुस्की ली, तो मन के कैनवास पर कुछ तस्वीर स्वतः हीं उभरने लगे। ये अकेलापन और तन्हाई हीं तो अब उनके जीवन की सत्यता बन चुकी थी। एक हरा-भरा परिवार था माधव जी का, तीन बच्चे दो बेटे एक बेटी और पत्नी शारदा के साथ जीवन अच्छा कट रहा था। परन्तु पांच वर्ष पूर्व जब पत्नी की मृत्यु हुई तब से सबके साथ होते हुए भी अकेले हुआ करते थे, माधव जी। सबकी अपनी-अपनी जिम्मेवारियां और सपने थे, जिसके पीछे बच्चे बस भागे जा रहे थे, और माधव जी एक रुकी हुई नदी के जैसे बस किनारों से गुजरते राहगीरों को देखा करते। ख़्यालों की रेलगाड़ी कुछ ऐसे चली की कॉफ़ी का प्याला कब खाली हुआ, ये माधव जी भी नहीं समझ पाए। कुछ पल ख़ामोशी में रहने के बाद उन्होंने अपनी छड़ी उठायी और अपने कमरे की तरफ बढे।
बेटों के साथ साथ बहुएं भी कामकाजी थीं तो सब के जाते हीं घर सुना हो जाया करता था। चूँकि माधव जी को पढ़ने का शौक हमेशा से रहा तो उनका खाली समय पुस्तकों के बीच हीं गुजरता था। हर दिन की भांति आज भी माधव जी अपने कमरे में गए और अपने बिस्तर पर लेट कर एक पुस्तक के पन्नों में खो गए। अभी कुछ घंटे भर गुजरे होंगे की माधव जी की आँखें भारी होने लगीं और उन्हें नींद की झपकियां आने लगीं। माधव जी ने पुस्तक बगल में रखी और आखें बंद कर लीं। कुछ क्षण हीं बीते होंगे की दरवाजे पर हुई दस्तक़ से माधव जी की आँखें खुली। उन्होंने सोये सोये हीं आवाज दी,
“कौन?”
“मालिक मैं, भीम!”
इतना कहते हुए भीम सिंह दरवाजा खोल कर अंदर आया, और माधव जी के बिस्तर के पास आकर खड़ा हो गया। भीम सिंह के चेहरे पर थोड़े घबराहट के भाव दिख रहे थे, जिसे समझते हुए माधव जी ने नम्र स्वर में कहा,
“क्या बात है भीम, कुछ कहना चाहते हो?”
भीम सिंह ने थोड़ी घबराहट के साथ कहा,
“मालिक वो एक हफ़्ते पहले आपके नाम का एक पार्सल आया था। मैं आपको देने आ हीं रहा था की छोटी भाभी ने कुछ काम थमा दिया और मैं वो पार्सल उनके कमरे में हीं रख कर भूल गया। वो आज उन्होंने पूरे कमरे की अच्छे से सफाई करने के लिए कहा था। मैं वही कर रहा था तब मुझे ये दिखा और याद आया।”
भीम सिंह ने पीले रंग का एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा माधव जी के तरफ बढ़ाया। माधव जी ने भीम के हाथ से वो लिफाफा लिया और उलट-पलट कर देखा, उसके ऊपर माधव जी का नाम और पता लिखे थे, भेजने वाले की जगह किसी रमेश चंद्र का नाम और पता था। माधव जी ने बड़बड़ाते हुए कहा,
“मैं तो किसी रमेश को नहीं जानता और मालदा शहर में तो कोई मेरी जानपहचान का भी नहीं है, और एक हफ़्ते पहले आया ये? इस उम्र में मुझे किसने और क्यों याद करेगा, शायद किसी ने मजाक किया होगा।”
इतना कहते हुए माधव जी बिस्तर पर हीं उठकर बैठ गए और फिर अपना चश्मा अपनी आँखों पर चढ़ाया। उन्होंने उस लिफ़ाफ़े को एक किनारे से फाड़ा और लिफाफे को झटका तो उसके अंदर से एक पुराना पोस्टकार्ड निकला, उसके अलावा उस लिफ़ाफ़े में और कुछ नहीं था। भीम सिंह वहीँ खड़ा था उसने उस पोस्टकार्ड को उठाया और उलट-पलटा फिर माधव जी की तरफ देखते हुए कहा,
“आपने सही कहा था मालिक किसी ने मज़ाक हीं किया है, ये पुराना खाली पोस्टकार्ड कुरियर कर कौन भेजता है। कैसे-कैसे लोग होते हैं आजकल। कुछ काम नहीं बचा है सबको।”
भीम सिंह हँसते हुए ये सब बोल रहा था, की माधव जी ने झटके से उसके हाथ से उस पोस्टकार्ड को लिया और बहुत हीं संवेदनशील नज़रों से वो उसे देखने लगे। उन्होंने उस पोस्टकार्ड को बड़े प्यार से सहलाया, और ठहरी नज़र से उसे देखते रहे। माधव जी की आँखों में आंसू का एक कतरा स्वतः हीं बना और आँखों के किनारों से बह निकला। उन्होंने भीम सिंह को कहा,
“तू अभी जा।”
तो भीम सिंह उनकी तरफ पीठ घुमाकर दरवाजे की तरफ बढ़ा, पर दरवाजे के पास पहुँच उसने माधव जी को एक नज़र पलट कर देखा, जो अभी भी उस पोस्टकार्ड को बस देखे जा रहे थे, और बड़बड़ाया, “सच कहते हैं लोग, बुढ़ापे में लोग सनक जाते हैं।” और दरवाजे को खोल कर कमरे से बाहर चला गया।
हाथों में उस खाली पोस्टकार्ड को लिए जाने कबतक माधव जी यूँ हीं बैठे रहे, फ़िर कुछ समयपश्चात उठे और स्टोर रूम की तरफ गए। स्टोररूम का दरवाज़ा खुलते हीं जमी धूल ने उनके श्वास को छुआ और उन्होंने लगातार तीन बार छींका। माधव जी ने स्टोर रूम के हर कोने को घूर कर देखा, शायद कुछ तलाश रहे थे वो। अंततः उनकी नज़र उस पुराने संदूक पर पड़ी, जिसे वो इतनी देर से ढूंढ रहे थे। उन्होंने पास रखे एक कपड़े की मदद से पहले तो उस संदूक को साफ़ किया और फिर उसे खोला। उस छोटे से संदूक में कुछ कागजात और एक पुरानी डायरी थी। माधव जी ने बहुत हीं संभालते हुए उस डायरी को निकाला और उसे खोला तो पाया की सारे पन्ने पीले और जर्ज़र हो चुके थे। उस डायरी के बीच के पन्नों में से एक तस्वीर और बिलकुल वैसा हीं खाली पोस्टकार्ड फ़िसलकर नीचे फर्श पर गिरा, तो माधव जी ने उसे उठाया और संजीदगी से देखने लगे। आँखों में आंसुओं का सैलाब और होठों पर एक मुस्कान उतर आयी थी। उनके होठों से एकाएक निकला, “आनंद!” और फ़िर यादों का एक तूफ़ान आया, जो उन्हें बचपन की ओर ले गया।
महज़ पांच वर्ष के हीं तो थे, माधव जी उस वक़्त जब उनके पिता का हृदयाघात से देहांत हुआ था। अपने पिता के एकलौते पुत्र होने की वजह से बहुत हीं लाड और प्यार मिलता था उन्हें, परन्तु उनके जाने के बाद तो जैसे नन्हे से उस बच्चे के चेहरे से हंसीं हीं रूठ गयी थी। माधव जी की माँ, अपने बच्चे को लेकर मायके चली आयी, ये सोचकर की शायद घर और गॉंव बदलने से छोटा माधव अपने पिता की यादों से बाहर चला आएगा।
आज इस गाँव के स्कूल में छोटे से माधव का पहला दिन था। थोड़ा डरा और सहमा हुआ सा माधव अपने नाना जी का हाथ थामे, अपने नन्हें क़दमों से स्कूल में दाखिल हुआ। स्कूल के एक शिक्षक महोदय उसे उसकी कक्षा में ले गए, जहां वो चुपचाप सबसे पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ गया। धीरे-धीरे कर बाकी बच्चों का आना शुरू हुआ और थोड़ी देर में सारी जगहें भर गयी। स्कूल की घंटी बजी और प्रार्थना के बाद, कक्षा शुरू हुई। अभी शिक्षक ने पढ़ना शुरू हीं किया था, की दरवाज़े के बाहर से किसी ने अंदर आने की इजाजत मांगी। शिक्षक महोदय ने उस बच्चे को जम कर डांट सुनाया और फिर उसे अंदर आने की इजाजत दी। वो बच्चा माधव के सामने आकर खड़ा हो गया और उसने कहा,
“ये तो मेरी सीट है, तुम कौन हो?”
माधव उठकर खड़ा होने हीं लगा था की उस बच्चे ने माधव के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
“अरे बैठो, मैं भी यहीं तुम्हारे साथ बैठूँगा।”
आगे से शिक्षक महोदय की आवाज एक बार फिर गुंजी,
“क्या चल रहा है पीछे, जल्दी अपनी अपनी जगह पर बैठो और शांत रहो सब के सब।”
वो बच्चा माधव के पास बैठ गया, और फिर उसने माधव की तरफ देखकर फुसफुसाते हुए कहा,
“मेरा नाम आनंद दास है, और तुम्हारा?”
माधव ने एक नजर शिक्षक महोदय पर डाली और फिर कहा,
“माधव मिश्रा।”
आनंद अब हर पांच मिनट में माधव से कुछ ना कुछ सवाल पूछता और उसे बात करने को प्रेरित करता। मध्याह्न काल में जब सब बच्चे अपने-अपने टिफिन से खाना खा रहे थे, उस वक़्त माधव ने भी माँ का दिया हुआ, टिफिन निकाला, और सादे से भोजन (पराठे और भिंडी की सब्जी) को देखकर मुँह बनाया। बगल में बैठा आनंद जो उसके टिफिन के अंदर झाँक रहा था, उसने खुश हो कर कहा, “अरे वाह भिंडी, भिंडी तो मुझे बहुत पसंद है” इतना कहकर उसने माधव के हाथ से उसका टिफिन ले लिया और उसे अपना टिफिन पकड़ा दिया, जिसमें पूरी छोले थे। माधव के चेहरे पर एक मुस्कराहट आयी और वहां से शुरू हुई आनंद और माधव की दोस्ती। उस दिन से दोनों हर वक़्त स्कूल, और गांव में साथ हीं पाए जाते। खेलना, खाना, घूमना या पढ़ना दोनों हर काम साथ करते। इस तरह कैसे दिन और कैसे साल बीतते चले गए दोनों को आभास तक नहीं रहा।
दसवीं की परीक्षा में जहाँ माधव अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण हुआ वहीं, आनंद के बस उत्तीर्णता भर के अंक आये थे। परन्तु अपने मित्र के अव्वल आने की ख़ुशी में आनंद ने पुरे गाँव को सर पर उठा लिया था। उस दिन शाम को जब दोनों मित्र आनंद के घर के दालान पर बैठे थे, अचानक से माधव बोल बैठा,
“आनंद, ऐसे तो हमदोनों हर पल साथ रहते हैं, पर सोच कल अगर दोनों अलग-अलग हो जाएँ तो?”
आनंद ने आसमान की तरफ देखते हुए कहा,
“क्यों बकवास करता रहता है तू, कहीं भी रहे, हम दोस्त हैं और दोस्त हीं रहेंगे। तू कल भी मेरा दिमाग खाता था, आज भी खाता है और कल भी खायेगा।”
“मैं मजाक नहीं कर रहा, आनंद। कभी अलग हुए और मुझे तेरी जरुरत पड़ी फिर?”
आनंद ने एक गहरी सांस छोड़ी और कहा,
“सुन, ऐसे तो हमलोग अलग होंगे नहीं, पर अगर हो भी गए तो डाकविभाग है ना, तू बस मुझे एक सादा पोस्टकार्ड भेज देना, मैं दौड़ता हुआ चला आऊंगा।”
माधव ने वादे के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा,
“पक्का, वादा करता है।”
आनंद ने उसके हाथ में अपना हाथ रखते हुए कहा,
“हाँ पक्का।”
अगले दिन दोनों पोस्टऑफिस गए और दो पोस्टकार्ड खरीद लाये, एक आनंद ने माधव को दिया और एक माधव ने आनंद को इस वादे के साथ की कभी अगर दोनों अलग हुए और एक को दूसरे की जरुरत हुई तो वो बस ये पोस्टकार्ड दूसरे को भेज देंगे।
दसवीं की परीक्षा के बाद गांव में पढाई संभव नहीं थी, तो दोनों ने पास के शहर में अवस्थित महाविद्यालय की ओर रुख किया। आनंद वित्तीय रूप से मजबूत था, जबकि माधव के पिता की बचपन में हुई मृत्यु की वजह से उसे आर्थिक परेशानियों से भी रूबरू होना पर रहा था। परिस्थितियां प्रतिकूल होने की वजह से माधव पढाई के साथ-साथ, छोटे बच्चों को निजी टुएशन भी दिया करता था। माधव मेहनती था तो अपनी पढाई और अपना काम दोनों हीं तरीके से कर लेता था। समय धीरे-धीरे पंख लगा कर उड़ा और फिर चार सालों के बाद उस दिन जब माधव अपने छोटे से कमरे में बल्ब की पीली रौशनी में पढाई कर रहा था, तब दरवाज़े पर दस्तक हुई। आनंद जो बिस्तर पर पड़ा हुआ था, उसने दरवाज़ा खोला, तो सामने अपने एक तीसरे मित्र राजेश को खड़ा पाया। राजेश के हाथ में उस दिन का अखबार था और उसके चेहरे पर उत्साह और उत्सुकता। उसने आनंद और माधव दोनों की तरफ रुख करते हुए कहा,
“हमने जिस नौकरी के लिए आवेदन कर परीक्षा दी थी, उसका परिणाम आया है, तुम दोनों के क्रमांक हैं इसमें, अब बस साक्षात्कार और वहीँ से पोस्टिंग।”
माधव और आनंद ने एक-दूसरे की तरफ देखा, और उछल कर एक-दूसरे को गले लगा लिया। दोनों की आँखों में ख़ुशी के आंसूं थे, पर अभी अंतिम पड़ाव बाकी था, ये कहकर दोनों ने एक- दूसरे की हिम्मत बढ़ाई। हफ़्ते बाद दो पृथक-पृथक शहरों में दोनों के साक्षात्कार थे। माधव और आनंद दोनों साथ-साथ घर से निकले और पैदल हीं बसअड्डे की तरफ जा रहे थे, वो दोनों बस अड्डे से दस मिनट की दूरी पर थे, की किसी ने पीछे से आवाज दी, “माधव सर!” पहले तो सड़क पर होते शोर में माधव ने कुछ नहीं सुना, पर दो-तीन बार जब किसी ने लगातार उसका नाम लिया तो उसने पलट कर देखा। पीछे माधव का सबसे छोटा विद्यार्थी गणेश अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ, उसकी तरफ भागता हुआ आ रहा था। माधव ने आनंद से कहा, “रुक जरा।” और गणेश की तरफ चार कदम बढ़ा दिए। माधव ने गणेश से पूछा,
“अरे गणेश, बेटा तुम यहां क्या कर रहे हो?”
तो पास खड़ी गणेश की माँ ने कहा,
“वो सर, यहीं पास वाली गली में मेरा मायका है तो वहीँ आयी थी, अभी थोड़ी देर पहले कुछ काम से बाजार आयी थी, वापस जा हीं रही थी, की गणेश की नज़र आप पर पड़ी, और ये अपने साथ-साथ मुझे भी दौड़ा लाया।”
तभी गणेश ने अपनी तोतली आवाज में कहा,
“आप कहाँ से सर, कितने दिन से आप मुझे पढ़ाने नहीं आये और ना हीं मेरे लिए टॉफ़ी हीं लाये।”
माधव ने गणेश के सर पर हाथ फेरते हुए कहा,
“वो मेरी नौकरी का आखरी चरण पास था, तो मैं उसकी तैयारी में थोड़ा व्यस्त था, इसलिए नहीं आ सका। हाँ जहां तक टॉफ़ी की बात है तो वो तो मैं तुम्हें अभी भी दिलवा दूंगा।”
गणेश ने अतिउत्साहित स्वर में कहा,
“सच।”
उधर गणेश की माँ ने गणेश से कहा,
“नहीं बेटा जाने दो सर को, उनको देर हो रही है, और घर पर तुम्हारे मामा भी आ गए होंगे, ताला डाल कर आयीं हूँ, वो भी परेशान हो रहे होंगे।”
गणेश का उतरा हुआ मुँह देख कर, माधव ने कहा,
“अरे दीदी, आप जाईये, मैं गणेश को टॉफ़ी दिलवा कर घर पहुंचा दूंगा, अभी हमारी बस को आने में दो घंटे हैं। आप परेशान ना हों।”
गणेश की माँ थोड़ी असहज़ हो रही थी, पर फिर उसने गणेश का हाथ माधव को पकड़ाते हुए कहा,
“ठीक है सर, पर जल्दी करियेगा, ये गणेशा भी झूठ का आपको परेशान करता रहता है।”
गणेश की माँ के जाने के बाद, पास खड़े आनंद ने माधव से कहा,
“बच्चे तो तुझे बहुत मानते हैं।”
तो माधव ने हँसते हुए कहा,
“बस असर है, अपना। अच्छा सुन तू यहीं रुक सामन देख मैं उस पास से गणेश को टॉफ़ी दिलवा देता हूँ, फिर घर पहुंचा कर आता हूँ बस मुश्किल से दस मिनट लगेंगे।”
आनंद ने हामी में सर हिलाया तो, माधव गणेश का हाथ थामे उसे सड़क के उस पार ले गया और जाकर एक दूकान में खड़ा हो गया। गणेश को उसकी मनपसंद टॉफ़ी दिलवाकर, माधव अपनी जेब से पैसे निकल कर दुकानदार दे रहा था, उसी बीच गणेश ने कहा, अब मैं जाता हूँ सर। माधव ने उसे कहा,
“अरे रुको मैं लेकर जाऊंगा, तुम्हें।”
माधव ने अपनी दुकानदार को पैसे दिए और खुल्ले वापस ले कर जैसे हीं पलटा, उसने देखा गणेश सड़क के बीच चला गया था, और उस पार जाने की कोशिश कर रहा था। माधव ने गुस्से में आकर गणेश का नाम जोर से लिया और कहा, “गणेश रुको।” और उसके पीछे बढ़ा, पर सामने से आती एक मोटर कार ने उसे पीछे होने पर विवश किया, और इतने में हीं एक तेज़ आवाज हुई। एक बड़ा सा ट्रक तेज़ गति से आया और सामने बिजली के पोल से टकरा गया जिससे उस पोल में आग लग गयी और साथ हीं ट्रक भी अनियंत्रित हो, सड़क पर पलट गया। ये सब पलक झपकते हीं हुआ, और इससे पहले की कोई कुछ समझ पाता, माधव ने देखा की गणेश सड़क के दूसरी ओर गिरा पड़ा है। माधव इधर से माधव और उधर से आनंद भागते हुए गणेश के पास पहुंचे और उसे गोद में लिया। गणेश के सर पर चोट दिख रहा था, और वहां से खून भी निकलना शुरू हो चूका था, उन्होंने गणेश को आवाज लगायी तो गणेश ने अपनी आँखें खोल कर उन दोनों को देखा और फिर बेहोश हो गया। माधव और आनंद दोनों के हाथ-पैर घबराहट से फूल गए थे। उनके आसपास कुछ लोगों का जमावड़ा भी लग चूका था, जिनमें से एक ने बच्चे को पहचानते हुए कहा,
“अरे ये तो यशवंत जी का भांजा है। मैं अभी उनको खबर करता हूँ।”
“इसे तो अस्पताल ले जाना होगा।”
इस तरह जितने लोग उतनी बातें और सलाह। माधव ने खुद को नियंत्रित करते हुए आनंद से कहा,
“सुन, तू जा। मैं ये सब संभाल कर आता हूँ।”
आनंद ने पैनी नज़रों से माधव को देखा और कहा,
“नहीं, मैं नहीं। मैं बच्चे को अस्पताल ले जाता हूँ। तू जा। ऐसे भी तुझे वहाँ पहुंचने में मुझसे ज्यादा समय लगेगा, मैं तो दो-तीन घंटों के सफर में हीं पहुँच जाऊँगा, तुझे कम से कम दस घंटे लगेंगे। तू जा माधव, तेरे भविष्य का सवाल है।”
माधव ने सर को ना में झटकते हुए कहा,
“तेरे भी तो भविष्य का सवाल है, और मैं ऐसे कैसे गणेश को छोड़ कर चला जाऊं, मैंने जिम्मेवारी ली थी इसकी। मेरा विद्यार्थी है ये।”
पर आनंद ने उसे धक्का दे कर कहा,
“तुझे मेरी कसम है माधव, तू जा। मैं कल समय से साक्षात्कार के लिए पहुँच जाऊँगा, पर अगर तू अभी नहीं गया तो सब बर्बाद हो जाएगा। तेरे लिए नौकरी बहुत जरुरी है, मेरी बात मान जा। और मैं तुझसे वादा करता हूँ गणेश को कुछ नहीं होगा।”
इतना कहते हुए आनंद ने अपना बैग कंधे पर लटकाया और गणेश को गोद में उठाकर बस अड्डे की विपरीत दिशा में अस्पताल की तरफ भागा। माधव कुछ क्षण वहीं मूर्त बन खड़ा रहा। उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था, अभी थोड़ी देर पहले उसके आसपास जो भीड़ थी, वो छंट चुकी थी, आगे बस जहां ट्रक पलटा पड़ा था, वहाँ कुछ पुलिस वाले बस अभी-अभी पहुंचे थे। उसके ठीक सामने मिट्टी पर गणेश के सर से बहे खून के कुछ ताज़े छींटे अभी भी उसे देख रहे थे, वहीँ दूसरी तरफ जेब में पड़ी साक्षात्कार की चिट्टी उसके मन को भारी किये जा रही थी। एक पल को उसने अपनी आँखें बंद की तो वस्तुवाद संवेदनाओं से कहीं भारी और महत्वपूर्ण दिखा उसे। उसने झट से अपनी आँखें खोलीं और नीचे पड़ा बैग उठा कर बस-अड्डे की ओर चल पड़ा।
माधव जी की तन्द्रा भंग हुई, तो उन्होंने भीम सिंह को अपने सामने खड़ा और खुद को घूरता हुआ पाया। नज़रें मिलने पर, भीम सिंह ने थोड़े रुबाब और वज़नदार आवाज में माधव जी से पूछा,
“मालिक आप इस कमरे में इतनी धूल में क्या कर रहे हैं, और आप तो कमरे में सो रहे थे?”
माधव जी जो अब तक उस धूलभरे फर्श पर बैठे हुए थे, उन्होंने उठने की कोशिश करते हुए कहा,
“मुझे कुछ पुराना सामान चाहिए था, तो मैं यहां आया।”
“अरे तो मुझे कहा होता, मैं निकाल देता। तबियत खराब कर लो ऐसे आप अपनी, और भैया जी सबलोग मुझे हीं ताने देंगे, की उनके जाने के बाद मैं आपकी ठीक से देखभाल नहीं करता। खाना तैयार है, मैं आपको देखने कमरे में गया तो आप मिले नहीं, पूरा घर ऊपर से नीचे तक छान मारा तब जाकर आप मुझे यहाँ मिले।”
भीम सिंह अपनी बड़बड़ में लगा हुआ था, की माधव जी ने उसे चकित करते हुए कहा,
“भीम, मेरा एक काम करेगा?”
भीम सिंह ने माधव जी की तरफ शांत होकर देखते हुए कहा,
”हाँ मालिक, जो आप कहें।”
तो माधव जी ने बेहद संजीदगी
“मेरे साथ मालदा चलेगा?”
भीम सिंह ने आँखें बड़ी कर कहा,
“मालदा? वो तो यहां से बहुत दूर है। क्यों जाना मालदा आपको? आप तो मंदिर तक खुद नहीं जा पाते फिर इतनी दूर मालदा। वो भी मैं ले चलूँ? भइया लोगों को बोलिये ना मालिक।”
माधव जी ने झुंझलाते हुए कहा,
“तुझे क्या करना है, ये सब जान कर। तू ये बता की तू चलेगा या नहीं? बच्चों से मैं बात कर लूंगा।”
भीम सिंह ने मुँह बना कर कहा,
“हाँ तो आप भईया सब को बोल दीजिये तो क्यों नहीं चलूँगा, जरूर चलूँगा। ऐसे भी मेरा तो काम हीं यही है, आपके साथ रहना और आपकी देखभाल करना।”
माधव जी के चेहरे पर थोड़े संतोष के भाव आये, और आँखों में एक उम्मीद की तरंग चल पड़ी।
दो दिनों तक अपने बच्चों को समझाते बुझाते, अंततः माधव जी का सफर शुरू हुआ। उन्होंने एक बहुत हीं ख़ास और जरुरी काम का वास्ता देकर अपने बेटों और बहुओं को समझाया की उनका मालदा जाना जरुरी है। माधव जी अपनी गाड़ी में बैठ अपने गुजरते हुए घर पर एक नज़र डाली और फिर ड्राईवर ने गाड़ी बढ़ा दी, साथ वाली सीट पर भीम सिंह बैठा था, जिसे बहुत सारे निर्देशों के साथ माधव जी के बेटों और बहुओं ने भेजा था। गाड़ी के शीशे के बाहर बड़ी तेज़ी से नज़ारे बदल रहे थे, और माधव जी के ज़हन में वो वक़्त कौंध रहा था, जब आनंद उनसे जुदा हुआ था।
उस घटना के बाद माधव जी आनंद से फिर कभी नहीं मिल पाए। साक्षात्कार बहुत अच्छा गया माधव का, और वहीँ से उन्हें तत्काल प्रस्तावपत्र भी मिल गया। माधव को सुदूर दक्षिणी बंगाल में ज्वाइन करना था, वो पहले तो रूम पर लौटा, पर आनंद का कोई अता पता नहीं था, माधव को लगा की शायद आनंद अभी तक लौटा नहीं क्यूंकि उसके आने के कोई निशान नहीं थे वहाँ पर। माधव के पास समय बहुत कम था वो तुरंत की अपने कार्यक्षेत्र की ओर निकल गया, निकलते वक़्त उसने एक नोट आनंद के लिए लिख छोड़ा, जिसमे उसने साक्षात्कार का पूरा वर्णन और ज्वाइनिंग की बात लिख डाली। जीवन का रुख कुछ यूँ घुमा की माधव को फिर पीछे पलटकर देखने का समय हीं नहीं मिला, दो सालों के बाद वो वापस शहर वाले उस कमरे पर आनंद की खोज में गया तो पता चला की उस कमरे में अब कोई और रहता है, मकानमालिक तीर्थयात्रा पर गए हैं, और दोस्तों से आनंद फिर मिला हीं नहीं। माधव जी वापस गाँव भी गए, पर पता चला की आनंद वहाँ भी नहीं आया। माधव जी को लगा, शायद उनकी तरह आनंद भी कहीं काम में पूरी तरह उलझ गया होगा। माधव माँ को लेकर अपने कार्यक्षेत्र में लौट आया, यहीं उन्हें उनकी धर्मपत्नी भी मिली और उनकी बाकी ज़िन्दगी स्थानांतरण और काम के दबाव में हीं बीत गयी। शुरू शुरू में तो आनंद की बहुत याद आती थी, चिंता भी होती थी, पर धीरे-धीरे आनंद और उसका नाम माधव जी की यादों में धुंधला पड़ गया। पर उस दिन उस कोरे पोस्टकार्ड ने सभी यादों समेत आनंद को जीवित कर दिया।
माधव जी ने एक गहरी सांस ली और सोने की कोशिश करने लगे, ताकि सफर थोड़ा जल्दी कटे। करीब दस घंटे की सड़कयात्रा के बाद माधव जी की गाड़ी ने मालदा शहर में प्रवेश किया। शहर के अंदर जाने कितने हीं लोगों से पूछने के बाद अंततः माधव जी उस छोटे से मोहल्ले में पहुंचे जहां का पता उस लिफ़ाफ़े पर अंकित था। सफ़ेद रंग में पुता हुआ वो छोटा सा मकान था, रमेश चंद्र का। गाड़ी से उतरते वक़्त, माधव जी के दिल में एक हलचल सी मची थी, और पाँव काँप रहे थे। सारे रास्ते उनके जहन में बस यही चल रहा था, की जब वो आनंद को देखेंगे तो उसे कैसे गले लगाएंगे, वो इस बुढ़ापे में कैसा दीखता होगा? उनके ज़हन में तो आनंद की बस युवास्था वाली तस्वीर थी, इतने सालों में उसमे जाने कैसे बदलाव हुए होंगे।
भीम सिंह का हाथ थाम माधव जी उस मकान के मुख्यद्वार की तरफ बढे, और दरवाज़े पर पहुँच कर उन्होंने दस्तक दी। तीन बार दरवाज़े को पीटने के बाद अंततः, अंदर से किसी के क़दमों की आहट आयी, माधव जी की दिल की धड़कनें भी उस आहट के साथ-साथ बढ़ने लगीं। जब दो पल्लों वाला वो दरवाज़ा खुला, तो अंदर से एक तीस-पैंतीस वर्षीय युवक उनके समक्ष आ कर खड़ा हो गया। माधव जी ने पहले तो ऊपर से नीचे तक उस युवक को गौर से देखा और इससे पहले की वो कुछ पूछ पाते, उस युवक ने पूछा,
“जी आप कौन?”
माधव जी ने थरथराती आवाज में कहा,
“मैं माधव मिश्रा। मुझे इस पते से एक कुरिअर आया था, शायद वो मेरे मित्र आनंद का था।”
उस युवक ने झट से माधव जी के पैर छुए और कहा,
“जी, मैं रमेश हूँ। मैंने हीं वो पत्र आपको भेजा था। मैं आनंद जी का बेटा हूँ। वो पिता जी ने आपको वो पत्र भेजने कहा था। वो आपकी बहुत बातें किया करते थे। प्लीज अंदर आईये।”
माधव जी ने अंदर प्रवेश किया, रमेश ने उन्हें छोटे से कमरे में बिठाया, जो मेहमानों के लिए बनाया गया लगा रहा था। माधव जी एक भूरे रंग के सोफे पर बैठे, और भीम उनके पास खड़ा रहा। रमेश अंदर गया और जब वापस आया तो उसके हाथ में एक ट्रे थी जिसमे पानी के दो ग्लास, चाय और कुछ नास्ता सजा कर रखे गए थे। माधव जी ने पानी पिया और फिर रमेश की तरफ देखते हुए कहा,
“आनंद कहाँ है? मैं मिल सकता हूँ उससे।”
रमेश की नज़र बाईं तरफ घूम गयी, और उसने ना में सर हिलाते हुए कहा,
“पिता जी नहीं रहे, पिछले हफ़्ते हीं उनका देहांत हो गया।”
माधव जी सुन्न पड़ गए कुछ पलों के लिए, पर रमेश बोलता रहा,
“करीब छह महीनों से पिताजी बीमार चल रहे थे, दमा था उन्हें, काफी समय से इलाज भी चल रहा था, पर इस उम्र में दवाएं भी तो नहीं सुनती। बहुत याद करते थे, वो आपको अंतिम दिनों में। उन्होंने हीं आपका नाम और पता देकर कहा था, की इस सादे पोस्टकार्ड को तू माधव को भिजवा दे, वो दौड़ता हुआ आएगा। पहले तो मैंने मना किया पर उनकी ज़िद्द के सामने हार गया। पर अभी आपको देख कर विश्वास हुआ की उन्होंने ऐसे हीं नहीं कहा था, की आप आएंगे। पर कुछ दिनों की देरी हो गयी।”
माधव जी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, की वो क्या कहें और क्या करें? कितने सवाल थे, कितना कुछ कहना और सुनना था उन्हें आनंद से। वो बस इतना बोल पाए,
“कौन से विभाग में कार्यरत थे तुम्हारे पिताजी? मैंने बहुत कोशिशें की पर वो मुझे फिर मिले नहीं।”
रमेश ने कहा,
“विभाग, अरे नहीं। पिताजी की कपड़ों की दूकान थी यहीं मालदा में, पिताजी ने बताया था, वो जब युवा थे, उस वक़्त उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए कई आवेदन दिए थे, और एक जगह से तो उन्हें साक्षात्कार का बुलावा भी आया था। पर उनकी गलती की वजह से एक बच्चा उसी दिन दुर्घटनाग्रस्त हो गया, वो उस बच्चे को अस्पताल लेकर गए, परन्तु अस्पताल में उस बच्चे का निधन हो गया, तो उसके परिवारवालों ने पिताजी पर गलत इल्जाम लगा उनके खिलाफ थाने में मुकदमा दर्ज़ करवा दिया। बहुत कोशिश हुई, पर पिता जी के पास खुद को निर्दोष साबित करने को कुछ नहीं था, तो उन्हें कुछ दिन जेल में रहना पड़ा। वापस सरकारी नौकरी के लिए उन्होंने कोशिश नहीं की की चरित्रप्रमाणपत्र बनांने में वही सब लफड़ा होगा। वो फिर सब पीछे छोड़ यहां मालदा आ गए, और यहां नाना जी की मदद से उन्होंने ये कारोबार लगाया।”
माधव जी का मुँह खुला का खुला रह गया, वो चीख कर रमेश को सच बताना चाहते थे, पर उनके शब्द निःशब्द हो चुके थे। वो आत्मग्लानि में जल उठे, पर अब तो आनंद भी नहीं था, जो उन्हें संभालता। आँखों से आंसुओं का प्रवाह चल पड़ा। और वो उठ कर खड़े हो गए वापसी हेतु, रमेश ने उन्हें कहा की वो इतनी दूर से आएं हैं, तो कुछ दिन ठहर कर जाएँ, कम से कम खाना तो खा कर जाएँ, पर माधव जी अब बस लौटना चाहते थे। तो रमेश ने आगे ज़िद नहीं की, गाड़ी में बैठते वक़्त उन्होंने रमेश से आखरी सवाल किया,
“तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?”
जिसपर रमेश ने कहा, वो पांच वर्ष पूर्व पिता जी सबको अपने गांव लेकर गए थे, वहीं पिता जी को आपके मामा के बच्चे मिले थे, उनसे आपका पता लिया था। मैं बस कामों में उलझा रहा और आजकल-आजकल करता रह गया। अब बस अफ़सोस है, की पिता जी की ये ख़्वाहिश मैं पूरी ना कर सका। इतना कहकर रमेश ने एक बार फिर माधव जी के पैर छुए तो माधव जी के मुँह से आशीष और आँखों से बस अश्रु भर निकल कर रहे गए। फिर उनकी गाड़ी धूल उड़ाती हुई, अपने शहर के लिए निकल पड़ी।
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