“कोमल से एहसास”
शब्दों की भींड में अकेली खडी,
मैं हूँ नर्म – कोमल से एहसास ,
पंक्तियों से बाहर निकल कर,
मोतियों सी टूट कर बिखर रही,
कहाँ हैं वो तार कि जिसमें जुड़ जाऊँ ,
कि कोई सपनों सी सीपी में सज जाऊँ,
नख ये शब्दों के जो चुभते हैं ,
बड़े खंजर से लगते हैं ,
ना कोई आस, ना कोई पास
कि कोई लडियों में पिरो दे ,
कि कोई गले में हार सी सजो ले.
हाँ मैं हूँ बिखरे हुए एहसास |
…निधि…