हुस्न को गुरुर किस बात का है,
हुस्न को गुरुर किस बात का है,
ये चाँद भी बस रात का है।
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ये पतझड़ तो मौसम,
अश्क़ों की बरसात का है।
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वो बरसों से खामोश है,
ये भी तरीका इंतकाम का है।
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हमें बदनाम करने वाले,
तू भी शख़्स किस काम का है।
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‘दवे’ उसे पूछना जरूर,
मुद्दा क्या तेरी औकात का है।
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उसे नफ़रत है तो कहती क्यों नहीं,
प्यार भी खेल जज़्बात का है।
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