26. ज़ाया
कोई नहीं जो समझे या माने मेरी बातें, अपना गम बताकर किसे यूं ज़ाया करे हम।
आग उगलती सड़कों पर चलना खूब आता उन्हें, शीतल बहती धारा को क्यों ज़ाया करे हम।
तारीखों में लिख देना मेरे भी हारने की सदा, अपनो की ही महफिल को क्यों ज़ाया करे हम।
गुनहगार यहां मैं हूं गुनाह मैने ही किया, आईने से पूछकर सवाल क्यों ज़ाया करे हम।
शायद सूनी यादों संग तन्हा चलना किस्मत है, रेत पर किस्मत लिखकर क्यों ज़ाया करे हम।
आंख मिचौली खेल रही ज़िंदगी मेरे सपनों में, सपनों की दुनिया को क्यों ज़ाया करे हम।
घुमंतू फिरते हर जगह असल बात नहीं मगर, बंदिश में कदम रखकर क्यों ज़ाया करे हम।।
लेखक: राजीव दत्ता ‘ घुमंतू ‘