कोई गीत बनाते नहीं बना
सच्चाई क्या है सबको बताते नहीं बना
के फर्ज मीडिया से निभाते नहीं बना
छलके हुए गरीब के आँसू जमीन पर
अखबार के पन्नों से उठाते नहीं बना
अधिकार माँगने को जो सड़कों पे आ गई
वो भीड़ चैनलों से दिखाते नहीं बना
बिगड़े हुए हालात में ईमान मारकर
कोशिश की मगर लाश छिपाते नहीं बना
रुक-रुक के चल रही है साँस लोकतंत्र की
शायद गला भी तुमसे दबाते नहीं बना
माना के वो अच्छा है पर उसमें भी कमी है
अफसोस! कलम तुमसे चलाते नहीं बना
जब मीडिया सत्ता के कदम चूमने लगी
‘संजय’ से कोई गीत बनाते नहीं बना