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2 Jul 2023 · 21 min read

कविता

[30/05, 11:15] Dr.Rambali Mishra: इंतजार (चौपाई)

इक फोटो घूंघट में दे दो।
प्रिय के उर में भाव कुरेदो।।
बिना दर्श के जीना दूभर।
रहे प्रीति नित सबसे ऊपर।।

जन्म जन्म के तुम्हीं मीत बन।
सुघर मनोहर मदन गीत बन।।
कामदेव का साथ निभाना।
रति बन कर जीवन में आना।।

अति मोहक है आत्म समर्पण।
मुग्ध हुआ मन लख आकर्षण।
छुप जाओ बाहों में भर कर।
चुम्बन हो नियमित जीवन भर।।

प्रिय!समेट लो एकीकृत हो।
डूबे तन मन मधु स्वीकृत हो।।
मधुर मधुर मुस्कान विखेरो।
संग शयन कर प्रीति उकेरो।।

देख देख कर जी ललचाये।
नैनों के जादू तड़पाये ।।
चेहरे की है छवि मनमोहक।
शोर मचाता यौवन बोधक।।

तड़प रहा है प्रिय का सीना।
चाहत में है प्रेम नगीना। ।
देख प्रीति को हर्षित मन है।
दिल में होता मधु नर्तन है।।

प्रीति मिलेगी भाग्य जगेगा।
स्वर्गिक सुख आनंद मिलेगा।
एकमेव साकार बनेगा।
अमृत झील कछार दिखेगा।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[30/05, 17:16] Dr.Rambali Mishra: जीवन आदर्श (मुक्तक)

जीवन हो आदर्शमय,उत्तम मूल्य प्रधान।
अनुकूलित मानस रहे,दिल में स्नेह महान।।
अमृत कलश करस्थ हो,प्रिय भावों से प्यार।
सुंदरता की वृत्ति का,होय सदा सम्मान।।

महा पुरुष के वचन को,दिल में सहज उतार।
नौकायन हो गंग में,क्रमशः जाओ पार।
शुचिता के उत्कर्ष को, छूने की हो चाह।
अंतस ही निर्मल बने,सबसे करना प्यार।।

सत्संगति से है बना,आदर्शों का गेह।
पावन ग्रंथों से करो,जीवन भर मधु स्नेह।।
यह जीवन आदर्श है,यदि हो शुद्ध विचार।
सदा पंथ शुभ सत्य पर,चले हमेशा देह।।

मोहक बनो उदाहरण,देखे य़ह संसार।
चूमे तेरे कदम को,करे सहज स्वीकार।।
अगुवाई सत्कर्म से,मानव बने विशाल।
इस जीवन आदर्श को,करना अंगीकार।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[31/05, 13:22] Dr.Rambali Mishra: अमृत (कुंडलिया)

मधुर गुप्त गोदावरी,में होने दो स्नान।
मन करता है डूब कर,होय सदा गुण गान।।
होय सदा गुण गान,मधुर जल रस निर्मल है।
दिल में है उत्साह,कमल मोहक मधु दल है।।
कहें मिश्र कविराय,नदी यह मोहक सकरी।
मेटत सकल थकान,मधुर गुप्त गोदावरी।।

सुन्दर नाभि कमल निरख,मन में भरता जोश।
छू लेने की चाह से,सहज गँवाता होश।।
सहज गँवाता होश,चाहता लेना चुम्बन।
काम क्रिया में लीन, परन्तु हृदय में कम्पन।।
कहें मिश्र कविराय,मस्त है नाभि समुंदर।
जलवा स्वयं विखेर,बुलाती मन से सुन्दर।।

जब जब भू पर जन्म लूँ,तब तब तेरा संग।
रहना प्रिय तुम साथ में,मिले प्रीति का रंग।।
मिले प्रीति का रंग,प्रणय बंधन हो अनुपम।
रहे रसीला जोश,भाव हो गहरा उत्तम।।
कहें मिश्र कविराय,सत्य प्रिय पाता वह सब।
जिससे दिल से प्यार,स्नेह सच्चा हो तब जब।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[31/05, 16:50] Dr.Rambali Mishra: दुखद दृश्य

दुख होता है मित्र जब,करता अस्वीकार।
हो कर लापरवाह अति,करता नहीं विचार।।

कल तक सुंदर मित्र था, आज हुआ अंजान।
रौंदा दिल को इस कदर,आज हुआ बेजान।।

प्राण निकलने के लिए,आज हुआ तैयार।
यही आज की मित्रता,विलख रहा है प्यार।।

दोस्ती घटिया हो गयी,बेदम हर इंसान।
किस पर हो विश्वास अब,गिरगिट सबका ध्यान।।

रंग बदलता जा रहा,दूषित होते लोग।
मिथ्या सब सम्बंध है,नहीं मित्र का योग।।

ज्योतिष के संसार में,राहु केतु भरमार।
मित्र भाव को डस रहा,विकृत ग्रह का द्वार।।

मित्र अजनबी सा हुआ,दिल को किया किनार।
भोगवाद के प्रणय का,यह अशिष्ट अवतार।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[01/06, 13:56] Dr.Rambali Mishra: तेरी याद में (मुक्तक)

याद आ रही बहुत नहीं भुला सका तुझे।
चाहते हुए नहीं कभी बुला सका तुझे।
बात दिल ठहर गई नहीं पिघल सकीं कदा।
बाजु से जकड़ कभी नहीं सुला सका तुझे।

प्यार की तरंग में उमंग जोश पूर था।
देख नव्य रत्न रूप रंग मन सूरूर था।
खुद गिरा उठा नहीं परन्तु खो दिया उसे।
याद आ रही सदा प्रतीक प्यार दूर था।

याद में असीम सुख समुद्र है हरा भरा।
दिलरुबा मचल रही सुखांत हिय वसुंधरा।
कल्पनीय़ भाव पक्ष में सुखी समाज हो।
याद में स्वराज की सुबह सफर परम्परा।

मस्त मस्त याद की बहार की विसात हो।
तुम मिलो सदा रहो बहो सुगंध वात हो।
खो गया है मन निरा बुला रहीं है अमृता।
खूबसूरती विखेरती सुहाग रात हो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/06, 09:32] Dr.Rambali Mishra: प्रीति रस (मुक्तक)

प्रीति रस उड़ेल कर किया बहुत कमाल है।
डूबता मधुर अधर सदा सुखी निहाल है।
पी रहा सुगंध रस नहीं कदापि ऊबता।
डूब डूब मस्त मस्त आज मन गुलाल है।

मंद मंद पावनी बहार की गुबार है।
सेज पर लिपट किया अनंत बार प्यार है।
मोहनीय़ चुंबकीय रूपसी बसी हृदय।
प्रेम जाल फांस में बधी प्रिया उदार है।

चाँदनी बनी सदा मचल मचल चला करो।
प्रीति रस पिला पिला अनंत में उड़ा करो।
हाथ छोड़ना नहीं कपोल चूमते रहो।
वायु बन बहक बहक उरोज को मला करो।

रागिनी बनी सदैव प्रेम गीत गाइये।
ओढ़ पीत वस्त्र वेश पास आज आइये।
सोख लो समुद्र बन शरम लिहाज त्याग दो।
चार आंख हो असीम प्रीति पय पिलाइये।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/06, 15:41] Dr.Rambali Mishra: समर्पण (मुक्तक)

देख समर्पण मन दीवाना।
चाहत केवल तुझको पाना।
बन मधुकर मन घूम रहा है।
नहीं चाहता समय गँवाना।

अति उत्तम अनुकूल समय है।
पगलाया तन मन निर्भय है।
रसिक हमेशा मड़राता है।
पीने को मधु रस तन्मय है।

उड़ उड़ कर पीता रहता है।
चूम चूस कर मन भरता है।
नाम नहीं लेता हटने का।
बार बार चुम्बन करता है।

सकल वदन रस पी मस्ताना।
भ्रमर बना प्रिय का दीवाना।
सारे अंगों का वह मालिक।
आज मिला है प्रीति खजाना।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/06, 16:43] Dr.Rambali Mishra: अभिव्यक्ति (मुक्तक)

केवल लेखन चिंतन वन्दन।
अपने मित्रों का अभिनंदन।
यही काम करता रहता हूं।
सींचा करता तरुवर चन्दन।

छोड़ दिया है काम लोक का।
कभी न करता काम शोक का।
निर्जन ही प्यारा लगता है।
लिखता मोहक ग्रंथ श्लोक का।

जो भी मुझको प्यारा लगता।
सारे जग से न्यारा लगता।
मेरे दिल का वहीं निवासी।
मन को भाता सुन्दर लगता।

सच्चा मानव ही मनमोहक।
ईमानों का वह संबोधक।
उसकी संगति अतिशय प्यारी।
सिर्फ चाहिए मित्र भरोसक।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/06, 17:54] Dr.Rambali Mishra: तुम्हीं लेखनी प्राण प्रिया हो

साथ अगर तेरा मिल जाए।
चले लेखनी काव्य सजाए।
इसमें कुछ संदेह नहीं है।
लगातार दिल पर छा जाए।

चले लेखनी उलट पलट कर।
भाव उकेरे मचल मचल कर।
चहल पहल करती इतराये।
नृत्य करे वह विदुषी बन कर।

आ जाओ नित साथ निभाना।
मुक्तक बन दिल में छा जाना।
पाठक गान करें मन माफिक।
शब्द भाव बन अर्थ बताना।

काव्य पाठ प्रिय एक तुम्हीं हो।
अति मनमोहक सभ्य तुम्हीं हो।
कविताओं की शक्ति रूप शिव।
मन में बैठी भव्य तुम्हीं हो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[03/06, 16:34] Dr.Rambali Mishra: सफर (मुक्तक)

घर से निकलो चलो सफर पर।
सदा नियंत्रण हो तन मन पर।।
हर विवाद से बच कर चलना।
रहे संग में दिव्य हमसफर।।

सफर सुहाना तब लगता है।
साथ प्रेयसी का मिलता है।।
भर लेती जब वह बाहों में।
तन दीवाना बन चलता है।।

रहे प्रेयसी तभी सफर है।
लगता सारा जगत शहर है।।
लिपटी सटी चला करती है।
कट जाती है राह सगर है।।

मन नाचे तब थिरक थिरक कर।
पैदल चलना भी अति सुन्दर।।
थकता नहीं कभी भी राही।
मतवाली सी चाल निरंतर।।

हाथ हाथ में डाल विचरता।
मन में कामुक भाव उमड़ता।
यह अद्भुत संयोग अनोखा।
बादल बन कर वदन गरजता। ।

मस्ताना अंदाज निराला।
सहज झूमता कंचन प्याला।।
रसिया बन कर चला पंथ पर।
पी कर मस्त मदिर का हाला।।

मौसम में खुशबू की लाली।
मुस्काती अधरों की ताली।।
अंग अंग में प्रिय उमंग है।
दिल में लहरे प्रेम दिवाली।।

प्रिय साथी उत्कृष्ट सफर है।
मन में छायी प्रीति नजर है।।
पथिक चले तूफान सरीखा।
छू लेता मंजिल को हँस कर। ।

प्रेयसि!तू ही दिव्य तराना।
चुम्बकीय मधु सफर कराना।।
भर देती हो प्यार हृदय में।
लगता सारा कष्ट पराना।।

जीवन प्यारा सफर सरल है।
प्रेम बिना भरमार गरल है।।
तय करना यह हिल मिल जुल कर।
प्रीति संग यह दिव्य तरल है।।

प्रीति सफर अनमोल ख़ज़ाना।
इस झंडे के नीचे आना।।
राह बहुत सुन्दर यह पावन।
छोड़ इसे मत कहीं न जाना।।

निर्मल मन की यही जगह है।
गगन चूमता धाम तरह है।।
जो भी जाने इस रहस्य को।
नहीं सफर में कभी कलह है।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[04/06, 16:35] Dr.Rambali Mishra: प्रेमाख्यान

कर से वसन उठा कर देखा।
अतिशय मोहक गुफा सुलेखा।।
ऊपर से वह दिखी बंद है।
रूप मनोहर प्रीति चंद है।।

देख गुफा को मन हर्षित था।
कामदेव अति आकर्षित था।।
छिपी वहां पर रति अलबेली।
गमक रही जिमि पुष्प चमेली।।

सकल वदन मह मह मह महके।
ललित रूप देख मन बहके।।
बहुत सलोनी रति कामिनि थी।
दिव्य चमकती इक दामिनि थी।।

देखा कामदेव जब घुसकर।
पाया रत्न मनोहर धंस कर।।
भरे अंक में डूब गया वह।
धक्का देकर खूब गया वह।।

चीतकार करती रति प्यारी।
कामदेव की बहुत दुलारी।।
रति का अंग अंग जोशीला।
मदन मस्त रंगीन रसीला।।

रजनी बेला में स्वर्गिक सुख।
कभी फरकता कभी यहां दुख।।
हाय गुफा!तुम कितनी मादक।
कामदेव ही तेरा साधक।।

इन्द्रदेव की तुम्हीं परी हो।
रसिक मिजाजी प्यार भरी हो।।
सारा जग तुझ से मनभावन।
काम नृत्य अति सुखद सुहावन।।

मनसिज मनमथ मदन फिरंगी।
सदा नाचते लिये सरंगी।।
रतिलोभी कामी सुख भोगी।
प्रीति रसामृत रति मधु योगी।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[06/06, 09:17] Dr.Rambali Mishra: लोक प्रीति

प्यार होय अर्थ से यही यथार्थ लोक है।
नेह स्वार्थ के निमित्त सृष्टिहीन कोख है।
उज्ज्वला न वृत्ति है हृदय कठोर हो रहा।
वेदना कराहती न नृत्य मोर हो रहा।

जी रहा मनुष्य है बना पिशाच दिख रहा।
कालिमा कलंक पोत श्वेता पत्र लिख रहा।
मार मार भाव पक्ष अर्थ को कमा रहा।
नाटकीय रंग मंच रौब को जमा रहा।

पाप कर रहा सदैव भोगवाद बढ़ रहा।
त्यागवाद शून्यप्राय देह शैल चढ़ रहा।
अर्थहीन शिष्टता हिसाब मांगती यहां।
मूल्यहीन चर्म चक्षु बेहिसाब है यहां।

दिल बना बहिर्मुखी टहल रहा अजीब सा।
दिख रहा अशांत सा दुखांत इक गरीब सा।
प्रीति रंग छोड़ जंग आसमान में पड़ा ।
रो रहीं मनुष्यता निरीह मन दुखी खड़ा।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[07/06, 06:57] Dr.Rambali Mishra: तुम ही सब कुछ

श्रेय तुम्हीं अरु प्रेय तुम्हीं हो।
मादक मधु रस पेय तुम्हीं हो।
सहज मंगला सुघर मोहिनी।
ललित काव्यमय गेय तुम्हीं हो।

भ्रम भागा जब तुझको देखा।
गौर वर्ण तुम सुमुखि सुलेखा।
अंतर्मन अति चंचल कामुक।
प्रिय रमणी इतिहास जुलेखा।

धन्यवाद देता तुझको मन।
अति आकर्षक है सुन्दर तन।
दिव्य वासना सदा प्रफुल्लित।
मधु लहरी अभिजात्य सदन घन।

अति सम्मोहक शैल तुम्हारे।
पृष्ठ भाग उन्नत बहु प्यारे।
स्वच्छ धवल निर्मल शुभ प्रीती।
श्रद्धेया हिय गेह पधारे।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[07/06, 11:03] Dr.Rambali Mishra: आखिरी दौर
गीतिका छन्द 2122 2122,2122 212

दौर अंतिम चल रहा है,कर्म उत्तम कीजिए।
शक्ति के अनुकूल हो कर,साध सब कुछ लीजिए।
हो नहीं अन्याय मन में,कामना शुभ दीजिए।
आखिरी इस दौर में प्रिय,प्रेम अमृत पीजिए।

अंत के इस दौर में नित,त्याग करना चाहिए।
टूटते इंसान हर का,भाग देना चाहिए।
जोड़ना,मत तोड़ देना;शिष्ट बनना चाहिए।
इक धवल इतिहास रच कर,प्राण भरना चाहिए।

स्वांस अंतिम पूर्व तक प्रिय,गान सबका कीजिए।
जा रहे हो छोड़ कर सब,मान सबका कीजिए।
दौर है यह सत्य शिव का,ध्यान सब पर दीजिए।
चूकना मत ऐ मुसाफिर,जान परहित दीजिए।

है मिला अवसर सुनहरा,फिर मिलेगा यह नहीं।
एक ही यह बार अंतिम,छोड़ना इसको नहीं।
तीर मारो इस तरह से,पार्थ बन कर हो अमर।
नाम रोशन हो जगत में,मार दो विकृत जहर।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[07/06, 16:37] Dr.Rambali Mishra: मूल्य

मूल्यवान गुप्त गेह तोप ढाक राखिए।
रत्न य़ह अमूल्य भव्य हाथ से संवारिए।
हक मिले प्रवेश का उसी मनुष्य को यहाँ।
शब्द सत्य प्रेम में मिठास चारु हो जहां।

गोपनीयता बनी रहे कभी खुले नहीं।
पात्रता नहीं अगर उसे कभी दिखे नहीं।
पात्र सभ्य सत्य शिष्ट स्नेह युक्त मंत्र हो।
प्रीति जाप नित करे सदैव स्वस्थ तंत्र हो।

मित्र एक ही भला उसे हृदय लगाइए।
गृह प्रवेश द्वार खोल प्यार से बुलाइए।
हाथ से मिलाय हाथ घेर घेर बात हो।
चूम चूम झूम झूम दर्श स्पर्श साथ हो।

भाव भंगिमा मधुर अधर ललित ललाम हो।
घूम घूम प्रेम गेह देह को
सलाम हो।
बीत जाए जिंदगी सप्रेम गुप्त गेह में।
रात दिन मिला करें अमर्त्य नित्य नेह में।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[08/06, 17:09] Dr.Rambali Mishra: मुक्तक
मापनी:221 221 221 22

धन से नहीं पेट भरता किसी का।
मन काम पूरा न होता किसी का।
मन के दरिन्दे यहां घूमते हैं।
मानो न मानो यही हाल सब का।

माया जनित मोह सब को लुभाता।
नश्वर यहाँ सर्व फिर भी सुहाता।
काग़ज़ कलम का यहां खेल चलता।
जादू भरा लोक सबको नचाता।

मन नृत्य करता उड़ाता वदन को।
जड़वत बना चाहता है चमन को।
मन का नियंत्रण बहुत ही कठिन है।
साधा वहीं पा गया राम धन को।

मिलते कहाँ राम सबको यहाँ पर?
सर सर सरकते सभी कुछ यहाँ पर।
पकड़ो भले सब फिसलते रहेंगे।
आंखें पहेली न समझें यहाँ पर।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[09/06, 15:32] Dr.Rambali Mishra: दुआ

दुआ ही दवा है दवा में दुआ है।
दुआ के बिना तो दवा भी हवा है।।

दुआ है हमारी रहे खुश जमाना।
रहें स्वस्थ मानव सदा मधु तराना।।

सभी की भलाई रहे नित्य कायम।
न छाए कभी भी यहां काल मातम।।

यहीं आरजू है निरोगी सभी हों।
रहे प्रभु कृपा कष्ट भोगी नहीं हों।।

मनाते हमेशा बहे प्रेम गंगा।
न भूखे उदर हों सभी मस्त चंगा।।

मिटें भेद सारे तमन्ना यहीं है।
रहें दूर विपदा विपन्ना नहीं है।।

विभूती दिया कर हृदय साफ रख कर।
दया कर दुआ दो सुखद दृष्टि रख कर।।

रहे कामना यह दुआ काम आए।
यही कर सुमिन्नत न कोई सताए।।

दुआ से बड़ा कुछ नहीं है जगत में।
छिपी शक्ति अनुपम सदा शिव भगत में।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[10/06, 15:24] Dr.Rambali Mishra: अहं
अहंकार अति दुखद भयानक।
यही एक है दानव कारक।।
जो इसके फंदे में फंसता।
पागल बन कर घूमा करता।।
अपने को ही सर्व समझता।
सारे जग को छोटा कहता।।
काम क्रोध का यही जनक है।
बदबू करती घृणित महक है।।
जो इसको अच्छा कहता है।
गंदा नाला बन बहता है।।
जिसे घृणा है अहंकार से।
स्नेह करे वह सदाचार से।।
अहं मुक्त श्री राम कहाये।
अहं स्वयं राक्षस बन जाये।।
दानव बन कर जीना कैसा?
अंतस से दिख मानव जैसा।।
दैत्य बना जो चलता फिरता।
वहीं सड़क पर गिरता रहता।।
जिसको उत्तम पंथ चाहिए।
मानवता का मंत्र चाहिए।।
वही कुचलता अहं भाव को।
पोषित करता दिव्य भाव को।।
जो करता अपना मन निर्मल।
अहं रहित वह प्रिय गंगा जल।।

साहित्यकार डॉ0रामबली मिश्र वाराणसी।
[11/06, 17:21] Dr.Rambali Mishra: लेखनी काव्य प्रतियोगिता
11 जून,2023
शीर्षक: हमसफर

बिना हमसफर के कठिन राह लगती।
निकटता सुलगती तपन दग्ध दिखती।
न चारा यहां कुछ सफर है दुखाता।
बहुत दूर लगता न आंखें मिलाता।

मिले हमसफर जब मनोहर सुहाना।
सफर की जवानी खुशी का ख़ज़ाना।
विकट भी सरल हो लगे भव्य मोहक।
सहज मन प्रफुल्लित मदन भाव पोषक।

सहारा मिले तो सरल जिंदगी है।
बिना साथ पाये गरल वंदगी है।
सफर के लिए इक निराली प्रिया हो।
बहाये सदा प्रेम धारा जिया हो।

चले हाथ धर कर सदा चूमती वह।
रहे साथ हरदम मगन झूमती वह।
अकेला मनुज का सफर है दुखाता ।
सदा हमसफर प्रिय सफर को दिखाता।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[11/06, 17:25] Dr.Rambali Mishra: शीर्षक: हमसफर

बिना हमसफर के कठिन राह लगती।
निकटता सुलगती तपन दग्ध दिखती।
न चारा यहां कुछ सफर है दुखाता।
बहुत दूर लगता न आंखें मिलाता।

मिले हमसफर जब मनोहर सुहाना।
सफर की जवानी खुशी का ख़ज़ाना।
विकट भी सरल हो लगे भव्य मोहक।
सहज मन प्रफुल्लित मदन भाव पोषक।

सहारा मिले तो सरल जिंदगी है।
बिना साथ पाये गरल वंदगी है।
सफर के लिए इक निराली प्रिया हो।
बहाये सदा प्रेम धारा जिया हो।

चले हाथ धर कर सदा चूमती वह।
रहे साथ हरदम मगन झूमती वह।
अकेला मनुज का सफर है दुखाता ।
सदा हमसफर प्रिय सफर को दिखाता।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[12/06, 16:42] Dr.Rambali Mishra: खुश रहो दूर रहो

मापनी : 122 122 122 122

मुझे आप से कुछ शिकायत नहीं है।
करो काम अपना खिलाफ़त नहीं है।

मुझे छोड़ दो मैं करूँ काम अपना।
बहुत दूर रहना कभी मत चिपकना।

जलो तो जलो यह तुम्हारा इरादा।
तुम्हें दीप मानूं समझ सत्य वादा।

बनो राख खुद ही सतत जल मरो तुम।
निडर बन रहूँगा सहज ही डरो तुम।

बिगाड़ा स्वयं को नहीं बन सका है।
स्वयं घात करके नहीं जी सका है।

न सत को सकारा नकारा स्वयं को।
वहम में सदा पाल रखता अहं को।

जिसे स्वार्थ प्रिय है अधम जान उसको।
न मिलता कभी मान सम्मान उसको।

चिता बन स्वयं जल रहा दुष्ट दानव।
उगलता हुआ विष पतित नीच मानव ।

रहे खुश बनाकर सतत नित्य दूरी।
नराधम मनोरथ कभी हो न पूरी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[13/06, 14:34] Dr.Rambali Mishra: रिश्ते

रिश्ते नाते हो रहे,लाभ हानि की चीज।
जिसका जिससे फायदा,उसका वही अजीज।।

स्वार्थयुक्त रिश्ते हुए,सबसे अपनी बात।
करता रहता है मनुज,जीवनभर दिन रात।।

धन दौलत ही मूल है,शाखा रिश्तेदार।
रिश्ता रखने के लिए,पैसा ही आधार।।

उसका होता मान है,जो हो धनी अकूत।
अर्थहीन रिश्ते वही,जो धनहीन कपूत।।

भौतिकता है अति प्रबल,प्रतियोगी है चाह।
उपयोगी रिश्ते वहीं,अर्थिक जहां प्रवाह।।

ठूंठ पेड़ की तरह है,सूखा रिश्तेदार।
जिसका घर है झोपड़ी,भोजन की भी मार।।

कलियुग आया देख कर,टूटे रिश्ते आज।
तितर वितर सब हो गया,प्रिय रिश्तों का ताज।।

खाने के लाले जहां,उसको पूछे कौन?
दशाहीन जीजा हुआ,ससुरालय में मौन।।

रिश्ता उससे सब करें,जो मोटा इंसान।
ठठरी का करता नहीं,कोई भी यशगान।।

उत्तम रिश्ता है वही,जो करता सहयोग।
वह रिश्ता है ताक पर,जिसका नहिं उपयोग।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[14/06, 20:15] Dr.Rambali Mishra: प्रीति रंग सर्वोच्च चटक है।

अति मनमोहक प्यार अनोखा।
परम प्रीतिमय रसमय चोखा।।
रस बरसा दो मेरे प्यारे।
जिह्वा पान करेगी न्यारे।।

आजाओ अब देर करो मत।
प्रीति नाद से पूरी चाहत।।
तड़पाओ मत आजा नीचे।
लेटो सारा रस हम खींचे।।

देह भोग का स्वाद निराला।
पी जाता मन सारा प्याला।।
बरसो अब तूफानी बन कर।
अति सुन्दर दीवानी बन कर। ।

जिह्वा से जिह्वा को जोड़ो।
चूम चूम कर खूब मरोड़ो।।
फिर अधरों से मेल करा दो।
रस पी पी कर काम जगा दो।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[15/06, 08:17] Dr.Rambali Mishra: चरित्र

मन में रहती कामना,ऊपर से परहेज।
बिन मांगे मानव यहाँ,चाहे बहुत दहेज।।

ऊपर से आदर्श है,भीतर बैठा काम।
करता है आलस्य अति,लेने में हरि नाम।।

दोहरा हुआ चरित्र अब,कम सच्चे इंसान।
दोषारोपण कर रहा,पतित नीच शैतान।।

जिसके दूषित भाव हैं,वही देखता दोष।
अपनी कुंठा थोप कर,भरता खुद में जोश।।

साधारण सी बात को,बढ़ा चढा कर बोल।
पिला रहा असहज बना,सच्चे को विष घोल।।

सुन्दर शुद्ध विचार में,दिखता है आदर्श।
कुत्सित बुद्धि अपावनी,में घटिया आकर्ष।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[15/06, 16:50] Dr.Rambali Mishra: तेरी कमी

तेरी कमी सदा खलती है।
व्यथा कथा लिखती रहती है।।
नहीं स्वप्न में भी तुम दिखते।
चलते फिरते कभी न मिलते।।

चले गये नहिं वापस आये।
नहीं भूल अहसास कराये।।
कमी तुम्हारी सहज सताती।
दिल को असहज सतत बनाती।।

तेरी बातें गुन गुन रोता।
घोर नींद में कभी न सोता।।
मन में अब उत्साह नहीं है।
अब तो कुछ भी चाह नहीं है।।

कोई नहीं तुम्हारे जैसा।
धन दौलत सब ऐसा वैसा।।
तेरी याद सदा आयेगी।
कमी निरंतर दुखलायेगी।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[16/06, 19:56] Dr.Rambali Mishra: सत्संग

सत्कर्मों में पुण्य समाया।
नीच कर्म से पाप कमाया।।
जो जैसा करता है जग में।
वैसी घंटी उसके पग में।।

जिसको प्रिय उत्तम शिव करनी।
उसको मिलती लक्ष्मी घरनी।।
जिसके मन में दुष्ट कर्म है।
वह चलता फिरता अधर्म है।।

साधु संत का तब दर्शन हो।
जब मन उर में मधु स्पंदन हो।।
बड़े भाग्य से मिलें महेशा ।
खुश होते प्रिय ज्ञान गणेशा।।

तब विवेक का घर मिलता है।
दिल में नित्य कमल खिलता है।।
जो करता सत्संग हमेशा।
कट जाते सब कष्ट कलेशा।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[17/06, 17:26] Dr.Rambali Mishra: सपनों की दुनिया (सरसी छन्द)

मेरे सपनों की दुनिया में,सब में हो उत्साह।
गिरा हुआ मन न हो किसी का,भरे न कोई आह।।

सबका हो अरमान सुनहरा,सब हों उन्नतशील।
शुद्धिकरण हो सब के मन का,उत्तम चिंतनशील।।

देवी देवों सी जनता हो,सब के दिव्य विचार।
प्रिय मोहक हितकर भावों का,होता रहे प्रचार।

परहित का नारा बुलंद हो,जोशीला अंदाज।
सपनों का सागर हो निर्मल,करे मधुर आवाज।।

पंचक्रोश में महादेव शिव,का हो जय जयकार।
रामेश्वर के धाम निराला,में हो धर्म प्रचार।।

धार्मिक आत्मिक लोक लुभावन,मनभावन हो बोल।
त्याग वेद का पाठ करें सब,बात होय अनमोल।।

काशी मथुरा और अयोध्या,में हो सदा निवास।
हरिकीर्तन हो शिव वंदन हो,राम श्याम के पास।।

प्रीति रंग में हृदय सजे बस,मन में भाव उदार।
सोच उर्वरक रहे प्रेमिला,जगे परस्पर प्यार।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[18/06, 16:24] Dr.Rambali Mishra: मेरे पिता जी

सहज प्रिय पिता जी यही बात कहते।
बताओ नहीं कुछ करो कर्म हँसते।
हंसना जो जाना वहीं हँसमुखी है।
प्रतिभा से सज्जित सदा बहुमुखी है।
न करता बुराई भलाई हमेशा।
सभी के लिए दर्द पीता दिनेशा।
धरे वेश पावन महकता दमकता।
चहकता सितारा बना वह चमकता।
पिता जी विलक्षण सदा शांत साधू।
रहे संग हरदम बने प्रिय अगाधू।
सतत गुरु रहे कर्म नेकी बताये।
बने प्रेम छाया सहज मन लुभाये।
नहीं मारते वे सहज ज्ञान देते।
सदा शिष्ट मन से बहुत ध्यान देते।
बनी जिंदगी यह उन्हीं के बदौलत।
सुसंस्कार दे कर दिया भव्य दौलत।
बना कर पिता जी नहीं साथ छोड़े।
सहायक बने वे रहें हाथ जोड़े।
नहीं भूल पाना पिता को कभी भी।
सदा भाव देते पिता जी अभी भी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[19/06, 10:56] Dr.Rambali Mishra: तुझ सा कोई दोस्त नहीं है (मुक्तक)

तुझ सा न सुंदर कोई दोस्त मेरा।
मिले जिंदगी में बने प्रिय बसेरा।
तुझे छोड़ पाना बहुत ही कठिन है।
अंधेरी निशा काल में तुम सबेरा।

सुतस्वीर तेरी सजा कर रखूंगा।
स्वयं बन सपन पास तेरे रहूंगा।
मिली जिंदगी यह मुकद्दर समेटे।
दिलेरी दिखाते हमेशा चलूंगा।

अगर तुम न मिलते किसे स्नेह देता।
किसे मैं बनाता जिगर का चहेता।
चलेंगे निभाते सदा दोस्त बन कर।
पताका सहज प्यार का ही विजेता।

तुम्हारे अलावा यहां कौन मेरा?
तुम्हीं एक मोहक सुमंगल चितेरा।
बने दोस्त प्यारे सुहाने कनक से।
भरोसा करेगा सुमन सिर्फ तेरा।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[20/06, 15:02] Dr.Rambali Mishra: भोर की लाली

भोर की लाली सुहानी लग रही।

लाल सी चुनरी पहन कर गा रहीं।
हर किसी को मोहिनी यह भा रही।
दे रही संदेश मोहक प्रीत का।
भर रही है भाव लेखन गीत का।
भोर की लाली भवानी जग रही।

जागती जगती इसी के दर्श को।
चाहता है विश्व पाना हर्ष को।
सुंदरी लाली सुशोभित हो रही।
प्रेयसी यह सूर्य की बन दिख रही।
चाहते हैं लोग इसके स्पर्श को।

शीतला प्रिय निर्मला यह सुखमुखी।
पावनी तस्वीर मोहक शुभ सखी।
दिव्य मधुरिम रूप रस की खान है।
प्राणियों के मन हिरण की जान है।
लाल अधरों की रसीली शिव मुखी।
भोर की लाली दिवानी हँसमुखी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[20/06, 15:22] Dr.Rambali Mishra: मेरा सच्चा मित्र
मेरा सच्चा दोस्त है,अति कोमल इंसान।
मानवता उसमें भरी,दिव्य मनोरम ज्ञान।।

अपने प्यारे दोस्त का,सदा करूंगा गान।
हरदम उसको देख कर,सहज रखूँगा ध्यान।।

मेरा प्यारा मित्र है, पूजनीय प्रिय नित्य।
सदा रहेगा साथ में,वंदनीय प्रिय स्तुत्य।।

अद्भुत मेरा मित्र है,भव्य शील आचार ।
चेहरा प्रिय निर्मल विमल,सहज भभकता प्यार।।

दिल में मेरा दोस्त है,मुस्काता दिलदार।
यह सच्चा विश्वास है,मिले सुनिश्चित प्यार।।

भाग न जाना छोड़कर,रहना प्रति पल संग।
रोशन कर दे जिंदगी,ऐ मेरे प्रिय रंग।।

सतत प्रीति की डोर का, बंधन कर स्वीकार।
अनुपम प्रियतम दोस्त दिल,तुम्हीं मधुर मम यार।।

जन्म जन्म के पुण्य से,मिलता सुन्दर मीत।
जीवन होता धन्य है,पा कर रत्न पुनीत।।

मेरा दोस्त महान अति,इसमें दैवी शक्ति।
इसके प्रति अनुराग है,और मनोरम भक्ति।।

दोस्त ईश समतुल्य है,निर्विकार शिव भाव।
यह उत्तम आदर्श प्रिय,मानक उच्च स्वभाव।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[21/06, 08:43] Dr.Rambali Mishra: योग दिवस
योग का प्रयोग हो सुखी रहे ये जिन्दगी।
शुद्ध बुद्धि हो सदैव विश्व की हो वंदगी।

चित्त वृत्ति का निरोध हो सका अगर नहीं।
व्यर्थ जिंदगी गयी बचा खुचा नहीं सही।

अष्ट अंग हृष्ट पुष्ट के लिए प्रयत्न हो।
योग मात्र साध कर चलो यही सुयत्न हो।

मार मन सँवार देह बुद्धि का विकास हो।
तार तार दुष्ट वृत्ति आत्म में निवास हो।

तोड़ तोड़ अर्थ काम वासना मरोड़ दो।
धर्म मोक्ष के लिए प्रपंच को निचोड़ दो।

योग जिन्दगी बने यही विचार मूल्य है।
जो करे न योग को वही विचार शून्य है।

मानवीय भाव का विकास योग से करो।
हिंसकीय दृष्टि का विनाश योग से करो।

जल मरें कुवृत्तियां विनष्ट भोगवाद हो।
निर्विवाद सत्यवाद प्रेम योगवाद हो।

योग ही निरोग धाम का अमर्त्य स्रोत है।
जिंदगी सजा रहा अनादि योग पोत है।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[22/06, 18:08] Dr.Rambali Mishra: जलन (स्वर्णमुखी छंद/सानेट)

जो आगे बढ़ता रहता है।
करना सीखा कर्म हमेशा।
साधारण परिधान सुवेशा।
उससे नीच जला करता है।

पावन चिंतन की प्रतिमा है।
सदा अग्रसर सफ़ल मनुज है।
उससे जलता सिर्फ दनुज है।
देवरूपमय शिव उपमा है।

गलत कृत्य से डरता रहता।
सच्चाई का माला पहने।
नैतिकता ही उसके गहने।
उत्तम भावों में वह रमता।

जलनेवालों से खुश रहता।
उत्तम को आदर्श समझता।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[23/06, 18:24] Dr.Rambali Mishra: अंतिम रात (सवैया)

अंतिम रात सुखांतक है इसको न भयावह मान कभी।
ध्यान रहे बस ईश्वर का दृढ़ता रखना विचलो न कभी।

अर्जित जो कुछ के प्रति मोह कभी न करो मत राग रखो।
ईश्वर मालिक है सबका अपने मन की मत चाह रखो।

अंतिम रात कठोर नहीं इसको अति मोहक जान चलो।
ईश्वर की य़ह चाहत है इसके अनुकूल ढलो उछलो।

पुण्य करो शुभ कर्म करो मत हिंसक भाव कभी रखना।
अंतिम रात बने शिव रात अहैतुक मोदक को चखना।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[25/06, 06:47] Dr.Rambali Mishra: बहुत कठिन संतोष है

माया के बाजार में,बहुत क्लिष्ट संतोष।
फिर भी मानव भागता,धन पीछे बेहोश।।

सबको माया मारती, पिटते सारे लोग।
फिर भी लिप्सा अति बली,बनी हुई मनरोग।।

साधु संत भी चाहते,होना मालामाल।
यह है घोर विडंबना, सब माया के लाल।।

किसको धन नहिं चाहिये,सबको धन की भूख।
भूखे प्यासे भागते,भले मरें वे सूख।।

नहीं अगर संतोष धन,धन के पीछे भाग।
माया के संसार में, रोना हरदम जाग।।

जो करता संतोष में, कभी नहीं विश्वास।
सुखमय जीवन का नहीं ,उसको है अहसास।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[25/06, 15:40] Dr.Rambali Mishra: जिंदगी (मुक्तक)

जीवन को संग्राम समझना।
इतना मत आसान समझना।
पृथ्वी पर आये हो करने।
सुन्दर सुन्दर काम समझना।

जीवन की है यह सच्चाई।
बिना परिश्रम नहीं भलाई।
श्रम से ही सब कुछ मिलता है।
जीने की है यही दवाई।

सुखमय जीवन की यदि चाहत।
नहीं किसी को कर मर्माहत।
मौन व्रती बन कर्म करो प्रिय।
पर हित का दो सबको दावत।

घोर परिश्रम जो करता है।
कभी नहीं आलस करता है।
सदा जुनूनी जीवन जीता।
तारा जैसा वह लगता है।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[25/06, 17:29] Dr.Rambali Mishra: गंदगी

गंदगी करो नहीं करो सदैव वंदगी।
स्वाभिमान से जियो करे प्रणाम जिंदगी।
जिंदगी सुखी रहे करो पुनीत काम को।
वासना मरे सदैव भूलना न राम को।
शुद्ध बुद्धि के प्रयोग से मिला महत्व है।
जो किया कुकर्म है महान नीच तत्व है।
मान से नहीं बड़ी यहां कभी उपाधि है।
मानहीन जिंदगी विषाक्त रोग व्याधि है।
साफ स्वच्छ भाव से अजीत बन दिखो सदा।
गंदगी करो नहीं सुकथ्य प्रिय लिखो सदा।
आदमी बने रहो सुकृत्य पर डटे रहो।
नीच भाव दुष्ट बुद्धि वास से हटे रहो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[26/06, 20:40] Dr.Rambali Mishra: सजल

योगेश्वर कृष्णा बन जाओ।
योग करो सबको सिखलाओ।।

योगी ही निर्मल ज़न मन है।
योगशास्त्र का अर्थ बताओ।।

मन में जब तक है चंचलता।
सारी ऊर्जा व्यर्थ गंवाओ।।

मन को स्थिर करना सिखो।
अपना सुन्दर काम बनाओ।।

चित्तवृत्ति को रोको वंदे।
योगी बनकर धूम मचाओ।।

निर्मल मन से बुद्धि शुद्ध कर।
इस धरती को स्वर्ग बनाओ।।

यदि संतोषी बनना है तो।
एक मात्र योगी बन जाओ।।

ईश्वर ही सच्चा योगी है।
इस मानक को खुद अपनाओ।।

स्नेह जगेगा अंतर्मन में।
इस जग को परिवार बनाओ।।

है कुटुंब यह सारी वसुधा।
अपने में व्यापकता लाओ।।

योगाभ्यास ज्ञान का दाता।
ज्ञानी बनकर मनुज बनाओ।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[27/06, 16:59] Dr.Rambali Mishra: तेरा मेरा साथ (सजल)

तेरा मेरा साथ रहेगा।
अमर कहानी सदा लिखेगा।।

तुझ में मुझ में भेद नहीं है।
मधुरिम प्रिय इतिहास रचेगा।।

मिलन हुआ है मधुर भाव का।
ऐसे ही य़ह चला करेगा।।

कभी न कण भर कम यह होगा।
सुरभित प्याला सदा चलेगा।।

जीवन दर्शन सुख का सागर।
साथ मिला हर काम बनेगा।।

मेरा साथी धर्म ग्रंथ है।
इसको मेरा हृदय पढ़ेगा।।

शानदार बेजोड़ साथ है।
प्रेमपूर्ण दिन रात निभेगा।।

मेरा साथी हीरा मोती।
इसे देखते मन चमकेगा।।

आदि काल से बना हमसफ़र।
हर मौसम में प्रेम बहेगा।।

तेरा मेरा साथ अलौकिक।
जन्म जन्म तक अमर रहेगा।।

छू देने का साहस किसमें?
इसे न कोई तोड़ सकेगा।।

अति सशक्त अरु कोमल निर्मल।
दिव्य शक्ति आलोक दिखेगा।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[28/06, 20:45] Dr.Rambali Mishra: साथ (सजल)

लौकिक नहीं अलौकिकमय है।
साथ एक रस सहज हृदय है।।

रहते हो जब आस पास में।
वातावरण सुगंधित तय है।।

संबल एक सिर्फ जीवन में।
साथ बनाता मन निर्भय है।।

जब निर्मल साथी मिलता है।
हार न होती सदा विजय है।।

पावन संगति सुख की गंगा।
उर में चन्दन दिव्य मलय है।।

जिसको सत्संगति मिल जाती।
वह सर्वोत्तम शुभ अवयव है।।

बुरे साथ का रस जो पीता।
उसका जीवन कटु विषमय है।।

शुभ चिंतन का गेह स्वर्ग है।
परहितवादी मन शिवमय है।।

सद्गुण के खोजी के जेहन।
में दिखते प्रभु सुंदरमय हैं।।

उत्तम साथ सदा मनभावन।
अति सुखदायक सावनमय है।।

शिव का साथ अगर मिल जाये।
सारा जीवन मंगलमय है।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[29/06, 16:27] Dr.Rambali Mishra: ईद

मुस्लिम का त्योहार यह,अतिशय सुन्दर पर्व।
दीन दुखी का ख्याल हो,यह इस्लामिक सर्व।।

खुशियां बाँटो प्रेम से,कहता य़ह त्योहार।
वंचित की सेवा करो,बन कर सेवादार।।

पीर मोहम्मद का यही,जग को शुभ संदेश।
दलितों का सम्मान कर,रहे न मन में द्वेष।।

दीन हीन बलहीन का,जो करता सम्मान।
जग में उसका नाम हो,खुश अल्लाह सुजान।।

पर्व नहीं संदेश यह,बन संवेदनशील।
कुचले पिछड़े अधमरे,के प्रति रखना शील।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[30/06, 07:56] Dr.Rambali Mishra: मन तरंग

मन करता है पास रहूंगा।
सारा जीवन दांव रखूंगा।।
मन निर्मलता का आलय हो।
संगीतो का विद्यालय हो।।

बिना तुम्हारे जीवन कैसा?
वृक्षहीन हो उपवन जैसा।।
तुम मेरे मन की हरियाली।
मिलती है खुशियों की ताली।।

तुम्हीं प्रकृति की सुंदरता हो।
हरे भरे वट की शुचिता हो।।
सुरभित मृदु तुम गंगा जल हो।
पावन सावन मास सुफल हो।।

जन्म जन्म का तुम्हीं पुण्य हो।
नमन योग्य वंदना स्तुत्य हो।।
दिव्य विराट सकल गुण साधक।
प्रीति परस्पर के आराधक।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[30/06, 19:04] Dr.Rambali Mishra: मरहठा छन्द

नित तप करते जा,पथ गहते जा,चलो सत्य की राह।
दुख तपन मिटाओ,स्वयं सजाओ,रखना उत्तम चाह।।

मत द्वेष कपट रख, फल मीठा चख,कर मोहक व्यवहार।
सबका आँचल भर ,मधुर स्नेह कर,हो मानव सत्कार।।

दो शुभ को स्वीकृति,उत्तम अनुमति,पावन भाव सकार।
मत लोभी बनना,दंभ न करना,दूषित वृत्ति नकार।।

करना संघर्षण,मन का तर्पण,बनो सरस रसदार।
जीवन नियमित हो,दिल विकसित हो,तन मन हो फलदार।।

जो सेवक बनता,मंगल करता,रखता सबका ख्याल।
वह अति मनहारी,शुद्ध विचारी,चलता मोहक चाल।।

जिसका हिय निर्मल,पावन उज्ज्वल,जग में वही महान।
जिसमें अपनापन,सहज बड़प्पन,रचता न्याय विधान।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[01/07, 16:03] Dr.Rambali Mishra: नंगे पैर (सरसी छंद)

नंगे पैर चलेंगे हँसते,यदि हो सच्चा साथ।
चाहे मंजिल हो अनंत पर,चलें पकड़ कर हाथ।।

पांच कोश की नियमित यात्रा,प्रति दिन नंगे पांव।
हर हर महादेव का नारा,बन जाएगा छांव।।

नंगा पैर बहुत सुखदायक,यदि मन में उत्साह।
“शूट बूट” बेकार लगे यदि,नहीं दौड़ की चाह।।

चलते नंगे पैर महाशय,संन्यासी का भाव।
मनोवृत्ति है वैरागी की,धोते दुख के घाव।।

चलते हरदम दण्डी स्वामी,लिए कमंडल हाथ।
जूता नहीं पहनते दिल से, रटते दीनानाथ। ।

नंगे पैर जन्म होता है,जाता नंगे पैर।
यह जीवन की सच्चाई है,हो ऐसे ही सैर।।

नहीं बनावट जो करता है,वह रचता आदर्श।
नंगे पैरों से तप करते,पैदा हो आकर्ष।।

नंगे पैर कबीर चले हैं,नंग पांव श्री राम।
बनवासी बन असुर दलन कर,पाये जग में नाम।।

मंदिर में पूजे जाते हैं,सर्व शक्ति भगवान।
नंगे पैर सुशोभित प्रभु जी,नतमस्तक इंसान।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/07, 10:00] Dr.Rambali Mishra: सवैया

मत क्षोभ करो न अशांत रहो अपने मन को समझाय चलो।
दुख जीवन का इक अंग सदा इसको मन से विसराय फलो।

गति ईश्वर की अनुकूल रहे अथवा प्रतिकूल नहीं विचलो।
वह जो करते अपने मन से उनसे सब कष्ट बताय चलो।

शरणागत हो हर काम करो दुख दर्द सदा उनसे कहना।
प्रभु कोमल भाव प्रधान उदार कृपाल दयाल विशाल मना।

सुनते सबकी गुनते दिल से कुछ लेकर देत अपार धना।
सुख चाहत हो जिसके उर में वह दे प्रभु द्वार सदा धरना।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।

Language: Hindi
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