कोई क्या करे
2कोई क्या करे
लिखने बैठी हूँ आज एक मुद्दत के बाद,
लगता है ख़त्म हुए जज़्बात, तो कोई क्या करे।
चाहा था कुछ वक्त बिताना अपनों के साथ,
खुद से ही हो गई हूँ अब बेगानी, तो कोई क्या करे।
भरनी चाही थी अंजुमन रोशनी से आँखें मूँद कर,
खुली आँख तो अंधेरा ही मिला, तो कोई क्या करे।
लुटा दी प्यार की दौलत सारी हमने खुले मन से ,
मन में है अब केवल न भरने वाली रिक्तता, तो कोई क्या करे ।
हुआ है मुश्किल तन्हा रहना अपनों के बीच ,
बिन अपनों के बसर करना पडे,तो कोई क्या करे।
होना होगा सहज फिर से अपनों के लिए,
न कर चाहत बस यूँ ही रहना पड़े,तो कोई क्या करे।
चाहा था वफ़ा का सिला मिले केवल वफ़ा से ,
बेवफ़ाई के सिवा कुछ मिले नहीं,तो कोई क्या करे।
उम्मीद ही तो की थी दिल से सम्भल जाने की ,
पर वो भी हुआ पराया हमारी न सुने, तो कोई क्या करे।
सुना था प्यार हो गर सच्चा तो राहें निकल आती हैं ,
यहाँ तो राहों ने ही कर दिया भ्रमित,तो कोई क्या करे ।
डॉ दवीना अमर ठकराल ‘देविका’