*कैसे हार मान लूं
कैसे हार मान लूं
मैं जीवन की अभिलाषा हूँ
कैसे मैं मझधार मान लूँ
मैं राही हूँ पगडंडी का
पथ से कैसे हार मान लूँ
झंझावातों की बस्ती में
बदले बदले चेहरे सबके
उजले उजले वस्त्र सभी के
काले काले दिल भी उनके
बोलो बोलो कुछ तो बोलो
कैसे जीवन पार लगा दूँ
पथ से कैसे हार मान लूँ।
दिनकर ने यूँ चीरा दिल को
साँस-साँस अब मर्ज हो गई
घर की सभी जमा पूंजी थी
डोली उठ कर कर्ज़ हो गई
तुम ही बोलो प्रियवर मेरे
आँसू में क्या धार लगा दूँ
पथ से कैसे हार मान लूँ।।
मैं दीपक हूँ अंधियारे का
अपने दम पर ही बलता हूँ
आंधी में जलना है सीखा
मल-मल आँखें मैं चलता हूँ
कैसे कह दूँ जीवन नैया
क्यों उनको पतवार थमा दूँ
पथ से कैसे हार मान लूँ।।
सूर्यकांत