कैसे लिखूँ
कतरा-कतरा
जोड़ स्व रुधिर का
बन पड़ी थी
निर्मात्री जिस सुत की
उर के उस टुकड़े के
विकीर्ण कण-कण को
आज समेट रक्त रंजित हो सिरह उठा
आंचल ममत्व का
फटी न छाती फिर भी
दारुण पीर देख
उसकी सद्य परिणीता के
रक्ताभ ललाट पर
फैले सिन्दूर के क्रंदन से
शक्ति हीन हो चुकी
सुदृढ़ भुजाएं
झूला थीं बनीं कभी
जनक बन उस लाल की
दिग्विदिक उठता धुंआ
गुबार पूरित गली-गली बारूद से
चीख पुकारें और रुदन
आततायी आतंक का नर्तन
शोणित लहुलुहान हुए पथ
कंपन क्रंदन का हाहाकार
फट पड़ें कर्णपटल भी
कहना तो चाहते
शब्द मेरे भी
है लेखनी मेरी
किन्तु
स्तब्ध
पड़ गये हैं फफोले
अंतस के
उस कोमल गुलाबी हिस्से पर
जहाँ से संचालित
श्वास-प्रश्वास
सिसक रहे अक्षर-अक्षर
अश्रु में डूबे भाव मेरे
निःशब्द हूँ
कैसे लिखूँ मैं कविता
है चरम कलियुग
कब होगे अवतरित पुनः
ओ परमेश्वर परम पिता ??
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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