कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी
एक गीत
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी।
नहीं-नहीं अब नहिं आयेंगे, नहीं उन्हें अब आना जी।
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भक्तों की टोली में देखो
धक्का मुक्की होती है।
भक्ति गौण हुई है सबकी,
मानवता भी रोती है।
चोर उचक्कों का मंदिर में, बढा हुआ अब जाना जी।
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी।
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नहीं गोपियां नहिं वो ग्वाले।
सबके मन काले -काले।।
कैसे उन पर रंग चढेगा,
सब बदरॅगी रॅग वाले।
ऐसी बदरॅगी दुनिया में,उनको नहिं अब आना जी।
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी।।
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छलिया सारी बनीं गोपियां,
खुद छलिया की नगरी में।
दूध दही माखन है नकली
उनकी अपनी गगरी में।।
मन में छल है तन में बल है छल का ताना- बाना जी।
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी।
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सूखी यमुना सूखा वन है।
सूखा घर का आंगन है।
उजड़ गये सब बाग बगीचे,
उजड़ा यह वृंदावन है।
मौसम भी अब बिरज-भूमि का देखो नहीं सुहाना जी।।
कैसे खेलेंगे अब होली, वृंदावन में कान्हा जी।।
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