कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में
७० वीं गणतंत्र दिवस के महान अवसर पर पढ़िए मेरी एक कविता …
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कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में !
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जनमानस को दासता के बेड़ियों में बांध रहा,
लूट रहा नित नैन-चैन विदेशी यंत्र में,
स्वदेशी घूट रही, प्रतिक्षण संस्कृति लूट रही;
कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में !
बंधे , बंजर-उजड़े , अन्यान्य स्वप्नों के तंत्र में,
दासता के बहु – विविध कारकों के यंत्र में,
घूट रही न्याय जहांँ, कितने भूखे परतंत्र में;
कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में !
भ्रष्टाचार जहां खूब फैला उत्कर्ष में ,
गरीबों की आहों को लूटे खूब हर्ष में ,
व्यवस्था परिवर्तन हेतु होते जो आर्ष में,
बंदी होते या जीवन खोते होते अपकर्ष में !
प्रबुद्ध जनों के मान्य नीति-नियामक यंत्र के ,
ठुकरा , छोड़ सब कैसा- मिल रहे कुटिल तंत्र में,
शासन तंत्र विकृति ला देश में , खूब लूटे स्वतंत्र में ;
कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में !
इतिहास हो चुकी कब की विस्मृत महान,
घीर गया धीर देश कैसा पर-तंत्र में ,
मानचित्र है जहां हर क्षण सिकुड़ रहा ;
विलुप्त मान-बिन्दु प्रशस्त , देश स्वतंत्र में !
संकुचित सीमाएं हुई खंडित भूगोल-खगोल ,
संकुचित सुविचार है देश स्वतंत्र में ,
जब तक पुरा तन-मन न होवे स्वदेशी ;
कैसे कहूं है हमारा देश गणतंत्र में !
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अखंड भारत अमर रहे
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आलोक पाण्डेय
( कवि लेखक साहित्यकार )
वाराणसी,भारतभूमि