कैसी आज़ादी
यह कैसी आज़ादी माँग रहे
यह कैसी आज़ादी का नारा है
एक ‘सोच’ की ग़ुलाम है जुबां तुम्हारी
उसी पे आज़ादी का नारा है
न जाने कितनों ने हँस कर ख़ून अपना बहा दिया
तुम्हारी आज़ादी की ख़ातिर शीश भी गँवा दिया
उनके क़ातिल को तुम आज मसीहा बता रहे
हाय ! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
किसने तुम्हारी आँखों पे ‘इल्म’ की पट्टी बाँध दी
यह कालेजों ने तुमहे कैसा ज़ाहिल बना दिया
तिरंगा लगता बोझ ,आतंकी को मासूम बता रहे
नादानों! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
शहीद की बेटी ने वीरों की शहादत को नकारा है
जिस ‘सोच’ ने जंग कराये उसे ही गले लगाया है
शहीद का ख़ून रगों में पानी बन दौड़ रहा
कायरों ! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
तुम्हारी आज़ादी की क़ीमत हर पल कोई चुकाता है
उस जवान की क़ुरबानी को तुम झुठला रहे
घर के दुश्मनों की जब आरती तुम उतार रहे
ग़द्दारों ! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
तुम्हारी नादानी से बहुत ख़ुश हैं जो
पीठ ठोक तुमहे शाबाशी दे रहें है जो
ग़ौर से देखो वतन से दुश्मनी वही निभा रहे
सिरफिरों ! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
आजाद हो तुम अपनो पे इलजाम धरने को
आजाद हो तुम अपना घर ही छलने को
कैद है रूह तुम्हारी ग़ैरों के पिंजरों में
ग़ुलामों ! यह कैसी आज़ादी तुम माँग रहे
यह कैसी आज़ादी माँग रहे
यह कैसी आज़ादी का नारा है
एक ‘सोच’ की ग़ुलाम है जुबां तुम्हारी
उसी पे आज़ादी का नारा है
-शालिनी सिहं