Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
28 Jun 2023 · 13 min read

कैलाश चन्द्र चौहान की यादों की अटारी / मुसाफ़िर बैठा

6 जून को कैलाश चन्द्र चौहान (अब स्मृतिशेष) ने फ़ेसबुक पर एक छोटी श्रद्धांजलि पोस्ट लिखी थी- “सम्यक प्रकाशन के प्रकाशक माननीय शांति स्वरूप बौद्ध अब हमारे बीच नहीं रहे, जानकर बढ़ा दुःख हुआ। उन्होंने दलित लेखकों को अपने प्रकाशन के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया। पुस्तक मेलों में उनके लगने वाले विशाल स्टॉल हमें गौरव का एहसास कराते थे। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।” और, विडंबना देखिये कि शांति स्वरूप बौद्ध जी की मृत्यु के बस, 9 दिन बाद वे स्वयं हमारी श्रद्धांजलि-पोस्ट का उपजीव्य बन गये! हमें दुनिया की भीड़ में छोड़ ख़ुद भी खो गए, गुम हो चले, हमसे सदा के लिए बिछुड़ चुके कैलाश भाई। यह तो वही बात हुई कि कोई किसी अपने की अंतिम संस्कार कर लौटा, उसकी आंखों के ख़ुद के आंसूं सूखे न थे कि दूसरों की आंखों में आंसू थमा कर चल दिये। यह तो हम सब को पता है कि जीवन बहुत छोटा है और अनिश्चित भी, लेकिन यह कोई एक्सयूज या कि जाने का बहाना थोड़े न हुआ, ऐसे थोड़े ही न जाया जाता है हाथ में लिए जरूरी काम को निपटाए बिना और काम के मित्रों को विश्वास में लिए बिना!

देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले कैलाश का बिहार प्रान्त की राजधानी पटना में रहता मैं फोन, फेसबुक, मैसेंजर और व्हाट्सऐप चैट के जरिये अच्छा मुलाकाती रहा। चेक किया तो पाया कि फेसबुक और मैसेंजर पर तो हम सन 2011 से ही संपर्क में रहे हैं और लगातार हमारा संवाद होता रहा था। मग़र सामने से केवल एक ही भेंट हो सकी हमारी, वह भी भीड़भाड़ में दो-चार मिनटों की, मुलाक़ात जो एक रंच मात्र संतोष का वायस या कि सर्जक साबित हो सका कि कभी मिला था उनसे। यह 2019 की बोहनी वाले महीने, जनवरी का वक्त था, जब दिल्ली के नामीगिरामी किरोड़ीमल कॉलेज में प्रथम दलित लिटरेचर फेस्टिवल हुआ था। समारोह स्थल पर तब उनसे हाथ मिला पाया था, दो चार वाक्यों की बातचीत हो पाई थी हमारी। आयोजन का मैं अतिथि वक्ता था जबकि वे न तो अतिथियों में थे न ही संचालकों में, बस, आयोजन का एक जायजा लेने आए थे श्रोता बनकर। और, जयप्रकाश कर्दम व वहाँ मौजूद कुछ बुद्धिजीवी बीच उनके साथ एक तस्वीर में साथ होने का सुख पा सका था मैं। मुझसे मिलने की तलब उन्हें भी थी। एक दफ़े पूछा था उन्होंने- “मुसाफिर जी, कभी दिल्ली आना होता है?” और, मैंने बताया था कि “गंगा सहाय मीणा की शादी में गया था, बीते जून माह में। कोई कार्यक्रम आगे बनेगा तो आपको बताऊंगा।” यह सन 2011 की ही बात है।

कैलाश स्वभाव से बेहद संकोची और अंतर्मुखी थे, जबकि कलम से करारा मुखर और सहज ही छाप छोड़ने वाले। उनके सरल-संकोची स्वभाव का एक एकाउंट सुर्खियों में रहने वाले स्थापित युवा कथाकार अजय नावरिया फ़ेसबुक पर देते हैं। नावरिया ने 31 जनवरी 2020 को उनके जन्मदिन पर एक पोस्ट यूँ लिखा था, “कदम प्रकाशन के कर्मठ प्रकाशक, दलित साहित्यकार, उपन्यासकार एवं कदम पत्रिका के संपादक तथा हमारे अभिन्न मित्र कैलाश चंद चौहान जी का आज जन्म दिवस है। इसे उनकी सादगी कहें या बड़प्पन कि वे इसे भी दोस्तों से छिपाना चाहते हैं किंतु हम और आप फिर भी उन्हें बधाई और शुभकामना देने का हक रखते हैं।”

साबित बुद्धिजीवी कैलाश की शैक्षणिक डिग्री विद्वान कहलाने योग्य कतई न थी, इंटरमीडियट मात्र थे वे, जबकि ‘विधिवत’ बुद्धिजीवी अथवा विद्वान कहलाने के लिए ग्रेजुएट से कम की डिग्री क्या मान्य होगी! कह सकते हैं, कैलाश भाई कबीरी तबीयत के ज्ञानार्थी थे और उन्होंने दुनिया को बहुत नजदीक से देखा समझा था। हमारे समय के एक ऐसे ही अल्पशिक्षित विद्वान एच एल दुसाध भी हैं। कैलाश ने एक नियमित मासिक पत्रिका ‘कदम’ के संपादन के अलावा अपने तीन उपन्यास, एक कहानी संग्रह एवं अपने संपादन की कई किताबों के माध्यम से अपनी बुद्धिजीविता का लोहा मनवाया।

लेखक, संपादक, प्रकाशक, सोशल एक्टिविस्ट जैसे सद्गुणों के समुच्चय कैलाश ने जनवरी 2020 के उत्तरार्द्ध में आकर सूचना देने और संवाद स्थापित करने का आधुनिक स्रोत अपना एक यूट्यूब चैनल भी खोल लिया था जिसमें दलित कवि-कथाकार पूनम तुसामड़ जैसों की उन्हें मदद हासिल थी। ‘कदम लाइव’ इसका नाम था जिसे वे ‘साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकारों का मंच’ कहकर लोगों से देखने की वकालत करते थे। यह चैनल यदि सही से चल पाता तो दोहरा लक्ष्य सध सकता था उनका। बाबा साहेब अंबेडकर का दलित समाज के बुद्धिजीवियों से पे बैक टू सोसाइटी के आह्वान व इच्छा के आसंग में भी इससे कैलाश का एक कदम और आगे बढ़ता, क्योंकि लक्षित दर्शक समूह में यूट्यूब वीडियो की मार्फत सामाजिक चेतना फैलती, साथ ही, इस चैनल को बड़ी संख्या में सब्सक्राइबर और व्यूअरशिप मिलने पर चैनल से स्थायी व अच्छा आर्थिक सहारा भी मिल सकता था। अपनी सामाजिक संलग्नता और आर्थिक आवश्यकताओं के चलते ही उन्हें एक साथ ही इन काम और अन्य अनेक काम एक साथ साधने की बेचैनी पाल रखी थी शायद, जो हड़बड़ी, संसाधन की अपूर्णता और बहुत नियोजित रूप में संचालित न हो पाने के चलते बहुत सफाई से, सही से सधना मुश्किल था, इच्छित परिणाम देने में सक्षम न थी। हालाँकि उनका हौसला माउंटेमैन दशरथ मांझी की तरह हिमालयी था, ऊंचा था। महज 48 वर्ष की उम्र में घटनापूर्ण एवं गुणवत्तापूर्ण जीवन जीकर उनके सहसा चले जाने से ऐसे जुनूनी और बड़े लक्ष्य के जीवन का मूल्य समझ में आता है। दलित साहित्य एवं वैचारिकी के लिए यह दुखद संयोग रहा कि उनके यूट्यूब चैनल, दलित साहित्य कोश ब्लॉग समेत उनकी तमाम रचनात्मक बेचैनियों को प्रभावी असर पाने का उनके चले जाने से यथेष्ट समय न मिला!

कैलाश को मुझसे रचनात्मक, समीक्षात्मक, मार्गदर्शक एवं अन्य प्रकार से सहयोग पाने की हमेशा आशा रही और इसके लिए वे अनुरोधरत रहे। दूसरी तरफ, आर्थिक सहयोग की अपेक्षा भी की, संकेतों में बताया भी, मगर कभी मुँह खोलकर उन्होंने नहीं मांगा। वे अपनी पत्रिका की पाठकीय एवं ग्राहकीय प्रसार का संबल मुझसे पाना चाहते थे जो अस्वाभाविक भी नहीं था। उनके इन्हीं कदमों में ‘कदम’ के अंक की छह प्रतियों के साथ कभी उनके द्वारा अपने सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘विद्रोह’ की दो प्रतियां पार्सल से भेजना भी शामिल रहा। वे अपनी रचनाएँ एवं उपन्यास, पत्रिका के अंक भेजते रहे और मैं उनकी रचनाओं, पत्रिका, पत्रिका के विशेषांकों, उपन्यासों को पढ़ उनपर समीक्षा लिखने की कोशिश करने का वादा करता रहा। मग़र, बहुत निभा नहीं सका। ठीक से पढ़े बिना किसी चीज़ पर तरीके से लिखना सम्भव नहीं होता और मैं कैलाश की रचनाओं का व्यवस्थित रूप से टुकड़ों में भी अध्ययन नहीं कर सका और फलतः उनके साहित्य का मेरे द्वारा कोई ठोस मूल्यांकन भी अबतक नहीं हो सका है। उनके द्वारा व्हाट्सऐप किया गया यह निवेदन उनके रचनात्मक काम के प्रति अथाह लगन, निष्ठा, मुझपर उनके विश्वास और आशा की बानगी प्रस्तुत करता है- “त्रैमासिक पत्रिका ‘कदम’ का अगला अंक ‘दलित प्रेम कहानियां विशेषांक’ निकालने का प्रयास होगा। इस अंक हेतु कहानियां आमंत्रित हैं। कृपया जल्द से जल्द कहानियां भेजें। कृपया ध्यान रखें कि कहानी ज्यादा बड़ी न हो। इस अंक में प्रकाशित दलित प्रेम कहानियों के संकलन की पुस्तक भी शीघ्र ही प्रकाशित भी होगी, जिसकी बहुत की कम कीमत रखी जाएगी, ताकि आपकी रचनाएं ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। कृपया, सहयोग दें। आशा है कि आपका सहयोग मिलेगा, आपसे निवेदन है दलित साहित्य कोश के लिए आप अपनी तीन-चार कविताएं, कहानी, अपना परिचय, पता, फोन नंबर, अपना फोटो, अपनी प्रकाशित पुस्तकों की सूची, उनके कवर पेज तथा प्रकाशक के विवरण, उनके फोन सहित उपलब्ध कराएं। कृपया, दलित साहित्य लेखन से जुड़े अन्य लेखकों की भी सामग्री भेज सकते हैं, ताकि यह कोश विशाल व सार्थक बन सके, कृपया, ध्यान रखें कि इस वेबसाइट पर अभी कुछ ही पेज हैं, जो धीरे-धीरे बढ़ेंगे। कृपया, इन पृष्ठों को बढ़ाने में आप सहयोग करें व सुझाव दें। ‘दलित साहित्य कोश’ के लिए जरूर लिखें। जितनी भी दलित पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं, उनकी पूरी जानकारी भेजें, ताकि उनकी सूची बन सके। यह डायरेक्ट्री बनने के बाद किसी को किसी लेखक के बारे में जानने, उनके फोन नंबर ढूंढने, उनकी किताबों के बारे में या प्रकाशकों के बारे में जानने के लिए कहीं भटकना न पड़े। अभी तक इस दलित साहित्य कोश के विभिन्न लिंक बटन इस प्रकार हैं : लेखक, लेखक परिचय, उपन्यास, कहानियां, कविताएं, दलित पत्रिकाएं, पुस्तकें, पुस्तक समीक्षा, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डा. तेज सिंह, डा. तुलसी राम, डा. जयप्रकश कर्दम, असंगघोष, डा. सुशीला टाकभौरे, डा. हेमलता महिश्वर आदि। ‘कदम’ के नये अंक ‘दलित प्रेम-कहानियां विशेषांक’ अंक की पीडीएफ फाइल भेज रहा हूं। 2 प्रति डाक से भेजी जा रही है। नोट : आप pdf फ़ाइल अभी किसी को ना भेजें। यह प्रति केवल आपके अवलोकन के लिए है। ‘कदम’ के नये अंक ‘दलित प्रेम-कहानियां विशेषांक’ अंक की पीडीएफ फाइल भेज रहा हूं। दो प्रति डाक से भेजी जा रही है। नोट : आप फ़ाइल अभी किसी को ना भेजें। यह प्रति केवल आपके अवलोकन के लिए है। मेरा नया उपन्यास 14 मई 2017 तक प्रेस से आना है। कदम का नया अंक उसी के साथ भेज रहा हूँ।”

अब इससे ज्यादा किसी में कोई क्या विश्वास करेगा? मैं हूँ जो उनके विश्वासों पर कतई खरा न उतर सका, मगर उन्होंने मेरी इस अन्यमनस्कता के लिए कभी नाराजगी न जताई।

तेज सिंह द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘अपेक्षा’ का ‘अंबेडकरवादी कहानी विशेषांक’ कभी आया था जिसकी पुस्तक-प्रस्तुति ‘अम्बेडकवादी कहानी : रचना और दृष्टि’ नाम से सन 2010 में आई। उसमें मेरी ‘दरोगवा’ कहानी भी छपी थी। मेरी कहानी भी कैलाश की प्रशंसा का पात्र बनी थी, कुछ इस तरह से- “कथित सवर्ण समाज के बुद्धिजीवी, लेखक जो दलित समाज की रचनाओं के नाम पर नाक-भौं सिंकोड़ते हैं उन्हें सुशीला टांकभौरे, अजय नावरिया, रजनी दिसोदिया, शीलबोधि, मुकेश मानस, मुसाफिर बैठा, टेकचंद, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, रत्न कुमार सांभरिया, अनीता भारती की कहानियां पढ़कर देख लेनी चाहिए। इनकी कहानियां उन दलित लेखकों के लिए भी संदेश है जो यह कहते हैं, हम दर्द बयां करना चाहते हैं, हमारे मन में टीस है, लेकिन कहने का कला-कौशल, शिल्प नहीं है, अभी हम सीख रहे हैं…… लेकिन कला-कौशल के साथ अपनी बात कहने की पकड़ तो बनानी पड़ेगी।” यह सन 2011 की बात थी जब कथाकार के रूप में कैलाश वानखेड़े उभर रहे थे, वे मेरे चहेते कथाकार बन चुके थे मगर तब इस विशेषांक में उनकी कहानी नहीं आई थी। चौहान जी और कर्दम जी ने तब फ़ेसबुक पर चल रहे संवाद में बताया था कि उन्होंने वानखेड़े की कहानी नहीं पढ़ी है, जबकि तबतक वे कथादेश, पाखी और कुछ अन्य बड़ी पत्रिकाओं में छप चुके थे। फ़ेसबुक पर चल रहे इस विमर्श में वानखेड़े ने हस्तक्षेप कर अपनी कहानियों के पत्रिकाओं में छपने की सूचना भी रखी थी। और, कैलाश चन्द्र चौहान ने उनकी कहानी पढ़ने की इच्छा जताई थी और कर्दम जी ने वहीं टिप्पणी की थी कि ‘मुसाफिर बैठा जी बहुत उम्दा रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूं।’ यह एक तरह से कर्दम जी द्वारा मुझे बोनस में हौसलाअफ़जाई का मिलना था!

बतौर प्रकाशक कैलाश को देखें तो उनका ध्येय अपने ‘कदम प्रकाशन’ से सस्ती व मिशनरी, जनसामान्य की चेतना को जागृत करने वाली किताबें छाप कर अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाना था। महज पाँच सौ रुपए में 100 से 125 पृष्ठों की पाँच किताबें बेचने जैसा ऑफर इसी लक्ष्य को साधने के निमित्त था। कैलाश अम्बेडकरवादी साहित्य की तरह प्रगतिशील साहित्य को भी हमराह मानते थे। इसी विचार के तहत उन्होंने रवीश कुमार पर केन्द्रित ‘बतकही’ नामक आभासी काव्य-मंच का साझा काव्य संग्रह ‘रात का सूरज’ भी अपने प्रकाशन से छापा। किसी सवर्ण लेखक को दलित-मित्र मान शायद, पहली बार उन्होंने अपने प्रकाशन से कोई किताब छापी थी।

एक सर्जक में अपनी सुयोग्य संतान की उचित प्रशंसा पाने की स्वाभाविक छटपटाहट होती है। कैलाश भी अपने द्वारा भेजवाई गयी किताब और पत्रिका के पढ़े जाने को लेकर तुरंत ही प्रतिक्रिया जताने के लिए टोकते थे। जैसे, “मुसाफिर जी, उपन्यास पढ़ना शुरू किया?”, “उपन्यास पर कोई तवरित टिप्पणी देंगे? जैसे प्रश्नों को वे पुस्तक मिलने के सप्ताह भर के अंदर ही छोड़ डालते थे।

“जिस दिन कैलाश की अकाल मृत्यु हुई थी उस दिन उनको जानने वाले अनेक दलित, ओबीसी एवं प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने फ़ेसबुक पोस्ट लिखकर उन्हें स्मरण किया था। उधर, 20 जून को वेबिनार के माध्यम से दलेस, जलेस, प्रलेस, जसम और एन एस आई ने कैलाश पर एक आभासी श्रद्धांजलि सभा आयोजित की थी जिसमें मुझे मुकेश मानस ने जोड़ा था। वेबिनार में हीरालाल राजस्थानी, शीलबोधि, संजीव कुमार, बजरंग बिहारी तिवारी आदि लेखकों ने भी हिस्सा लेकर कैलाश को स्मरण किया था। मैंने इसमें भी आत्मस्वीकृति ली थी कि उनसे मेरा एक संबंध रहा मगर मैं उनकी रचनाओं को न तो ठीक से पढ़ सका, न ही उनपर कुछ आलोचनात्मक लिख सका, और, उनके प्रति मेरी सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब मैं यह सब कर लूँगा।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि कैलाश ने सन 2015 में ही ‘दलित साहित्य कोश’ नामक ब्लॉग खोल लिया था। मेरे पढने-लिखने एवं हस्तक्षेप की ऑनलाइन गतिविधियों को देखते हुए उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आभासी रचनात्मक मंचों पर मेरी सक्रियता उनके लिए उपयोगी हो सकती है। इसलिए उन्होंने इस साहित्यिक ब्लॉग को समृद्ध करने में मेरी मदद मांगी थी जिसका भरोसा मैंने उन्हें दिया भी थी। मैंने उनसे कहा था कि मेरी कोशिश होगी कि ब्लॉग के लिए समय समय पर योगदान एवं सुझाव देता रहूँ। इसी क्रम में मैंने बिहार-झारखंड क्षेत्र के कुछ मूर्द्धन्य दलित साहित्यकारों बुद्धशरण हंस, विपिन बिहारी, रमाशंकर आर्य, अजय यतीश, दयानन्द बटोही, कावेरी, देवनारायण पासवान ‘देव’ आदि के रचनात्मक एवं परिचयात्मक ब्यौरे भी भेजे थे।

आदमी की खूबियों-खामियों के तुले पर कैलाश की पर्सनालिटी को आंके तो सबसे पहले कहना यह पड़ेगा कि मोटी कमजोरियाँ भले न हों, कतिपय तुच्छ कमजोरियाँ तो सब में होती हैं जो कि व्यक्ति की मजबूतियों के आगे गिनने में आने योग्य नहीं होतीं। कई बार मोटी कमजोरी भी मजबूतियों की मोटाई के असर में किसी व्यक्तित्व के आकलन में, हिसाब-किताब में प्रभावी रूप से नकारात्मक दखल नहीं देती। आर्थिक तंगी व परिवार-समाज के दबाव में शायद, कैलाश भी कुछ स्पष्ट दृष्टिगोचर होती कमजोरियों के साथ रहे। मसलन, कुछ दिनों तक अमेज़न वेबसाइट पर चलते तौलियों के एक विज्ञापन को अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर शेयर करते रहे, फिर लाभ न देखकर अथवा नैतिकता और कर्तव्य जगने पर जल्द इस विज्ञापन-कर्म से मोहभंग भी कर लिया था। अम्बेडकरवादी कैलाश अपने जन्म की जाति में सुधार देखने के आकांक्षी थे और इस क्रम में वे अम्बेडकरवाद को लांघ कर भी अपने संपर्क के वाल्मीकि समाज का हितचिंतन करते थे। वे वाल्मीकि समाज के बीच वैवाहिक संबंध बनाने में लोगों की मदद भी करते थे। समाज के लिए विवाह का फोरम और साइट भी कुछ लोगों के साथ मिलकर वे चलाते थे। उन्होंने दलितों के वाल्मीकि तबके के कथाकारों द्वारा लिखी गयी कहानियों की एक साझा पुस्तक का प्रकाशन भी किया था जिसके संपादक मशहूर दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान हैं। विडम्बना है कि कैलाश जी का अंतिम संस्कार उनके परिवार वालों ने हिन्दू विधि से किया। यह अंतिम संस्कार में मौजूद हीरालाल राजस्थानी की गवाही से कह रहा हूँ। संभव है कि चेतना के स्तर पर मज़बूत होते हुए भी कैलाश ने अपने जीवनकाल में हिन्दू रीतिरिवाजों के प्रति खुद भी घुटने टेके हों, मग़र, अम्बेडकवादी मूल्यों के प्रति उनकी पक्षधरता असंदिग्ध है, जैसे, 22 मई 2020 की अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में वे लिखते हैं- “डॉ. भीमराव अंबेडकर जी ने क्यों कहा कि हिन्दू धर्म का दर्शन मानवता, समानता का धर्म नहीं कहा जा सकता?” और, यह सवाल वे अपने यूट्यूब चैनल के एक वीडियो के साथ नत्थी करते हुए उसे देखने की पाठकों से पैरवी करते हुए करते हैं। प्रसंगवश, बताऊं कि इसी वर्ष ही गुजरे हिंदी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर वामपंथी थे, युवावस्था में ही उन्हें द्विजत्व का प्रतीक ब्राह्मणवादी धागा, जनेऊ तोड़ दिया था और इस बात को वे खुले मंचों से सगर्व बताते भी थे। मगर, उनके परिजनों ने भी उनका अंतिम संस्कार हिन्दू विधि से किया। मैं अंत्येष्टि स्थल पर मौजूद था। वामपंथ एवं बौद्ध धर्म को वरण करने वाले मशहूर हिंदी-मैथिली साहित्यकार बाबा नागार्जुन (वैद्यनाथ मिश्र) ने भी किसी सरकारी स्कूली पुस्तक के लिए हिन्दू अंधविश्वास की रामकथा के दो सर्वप्रमुख पात्रों, पुरुष एवं स्त्री दैवी की कहानी की पुनर्प्रस्तुति की और बच्चों के कच्चे मन-मस्तिष्क में अंधविश्वास का विष घोलने के साथ हो लिए थे। और, नागार्जुन को भी तो मरते वक्त उनके मन-वचन-कर्म के विरुद्ध उनके रिश्ते-नाते के लोगों द्वारा हिन्दू धर्म में ही अटा दिया गया था। इसलिए, बलात अथवा मजबूरन आए विचलनों को (अगर वे बहुत सायास नहीं हैं, कुटिल चाल वश नहीं हैं तो) हिन्दू धर्म की मान्यता ‘आपद्धर्म’ में समाता आपवादिक विक्षेप ही समझिए! इसी परिप्रेक्ष्य में बताता चलूँ कि 6 दिसंबर, 2012 की एक फ़ेसबुक पोस्ट है कैलाश की जो वैज्ञानिक चेतना परक उनकी समझ और साथ ही, एक सार्थक फ़िल्म की समर्थ समीक्षा करने की काबिलीयत रखने का पता देती है। देखिये – “पिछले दिनों मुझे ‘ओ माई गॉड’ यानी OMG फिल्म देखने का मौका मिला। हालांकि परेश रावल ने लोगों से बचने के लिए इसमें भगवान को शामिल किया है। वो भी कुटिल नीति के कृष्ण को। लेकिन फिर भी परेश रावल जी ने जिन चीजों के खिलाफ अपनी बात रखनी थी खुलकर रखी, धर्म की ठेकेदारों के खिलाफ जो बोलना था खुलकर बोला व उनकी पोल खोली। एक बात इस बार भी उभरकर आई की इस फिल्म में नास्तिक ही भारी पड़ा। भगवान ने भी नास्तिक का साथ दिया, उसी के सामने प्रकट हुए। पिछले दिनों एक सज्जन एक कथा कह रहे थे कि एक बार कुछ लोग गंगा पार करने के लिए एक नाव में बैठे। नाव जैसे ही गंगा के बीच में पहुँची, नाव डूब गई और नाव में सवार 12 व्यक्ति डूबकर मर गये। बाद में पता चला कि नाव में एक नास्तिक व्यक्ति बैठा था, जिसके कारण नाव डूबी। उनकी बात सुनकर मेरी हंसी छूट गई, यानी फिर भी इतने लोगों की भक्ति पर नास्तिक ही भारी पड़ा? जब इतने सारे आस्तिकों पर नास्तिक ही भारी पड़ा तो उनकी भक्ति का क्या फायदा हुआ? यह बात सुनकर वह सज्जन कुछ बोलने की हिम्मत न जुटा सके। लेकिन उस सज्जन की जगह पर कोई दूसरा होता तो वह कोई न कोई कुतर्क दिये बिना नहीं मानता।”

जीवन से परे होना है हम सबको एक दिन, लेकिन जीवन में रहते व्यर्थ के टंटों में उलझना व्यर्थ है। अनमोल है जीवन, जीवन में व्यर्थ के टंटे बेसाहने वालों को बताना-समझाना होता है। बुद्धिजीवी और तमाम तरह के समाज अगुआ अपनी ज़ाती ज़िंदगी जीते हुए अपने अपने तरीके से समझाने-बुझाने के कर्तव्य पर भी होते हैं। कैलाश भी समाज-अगुआ थे। जात-धर्म की नाहक बंदिश को छह सौ साल पहले आए और घेरे में कर गये सोशल एक्टिविस्ट एवं क्रांतिधर्मी कवि कबीर ने लिखा है-
“जब तुम आए जगत में, जगत हँसा तुम रोए!
ऐसी करनी कर चलो, तुम हंसो जग रोए।।”
कैलाश चन्द्र चौहान बहुत देर से मिले और काफ़ी जल्दी चले गए जैसे! हंसने-रोने का वही कबीरी-गणित हमें थमा गये वे!
^^^^^^^^^^^^

आलेख :
डॉ. मुसाफ़िर बैठा
प्रकाशन शाखा, बिहार विधान परिषद्, पटना-800015, मोबाइल-7903360047, ईमेल-musafirpatna@gmail.com
thanx bhai
Show quoted text

Language: Hindi
1 Like · 197 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Dr MusafiR BaithA
View all
You may also like:
मतलब का सब नेह है
मतलब का सब नेह है
विनोद सिल्ला
अब तो  सब  बोझिल सा लगता है
अब तो सब बोझिल सा लगता है
भवानी सिंह धानका 'भूधर'
पहले क्यों तुमने, हमको अपने दिल से लगाया
पहले क्यों तुमने, हमको अपने दिल से लगाया
gurudeenverma198
चल विजय पथ
चल विजय पथ
Satish Srijan
"काश"
Dr. Kishan tandon kranti
सुख-साधन से इतर मुझे तुम दोगे क्या?
सुख-साधन से इतर मुझे तुम दोगे क्या?
Shweta Soni
🥀 *गुरु चरणों की धूल*🥀
🥀 *गुरु चरणों की धूल*🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
*संवेदना*
*संवेदना*
Dr .Shweta sood 'Madhu'
इश्क
इश्क
SUNIL kumar
जिंदगी का एक और अच्छा दिन,
जिंदगी का एक और अच्छा दिन,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
பூக்களின்
பூக்களின்
Otteri Selvakumar
नेताओं के पास कब ,
नेताओं के पास कब ,
sushil sarna
*किस्मत में यार नहीं होता*
*किस्मत में यार नहीं होता*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
काश ! लोग यह समझ पाते कि रिश्ते मनःस्थिति के ख्याल रखने हेतु
काश ! लोग यह समझ पाते कि रिश्ते मनःस्थिति के ख्याल रखने हेतु
मिथलेश सिंह"मिलिंद"
F
F
*प्रणय*
सिंदूर 🌹
सिंदूर 🌹
Ranjeet kumar patre
फूल की प्रेरणा खुशबू और मुस्कुराना हैं।
फूल की प्रेरणा खुशबू और मुस्कुराना हैं।
Neeraj Agarwal
मै थक गया
मै थक गया
भरत कुमार सोलंकी
कहानी- 'भूरा'
कहानी- 'भूरा'
Pratibhasharma
4211💐 *पूर्णिका* 💐
4211💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
जिनकी बातों मे दम हुआ करता है
जिनकी बातों मे दम हुआ करता है
शेखर सिंह
जब दिल से दिल ही मिला नहीं,
जब दिल से दिल ही मिला नहीं,
manjula chauhan
प्रकृति (द्रुत विलम्बित छंद)
प्रकृति (द्रुत विलम्बित छंद)
Vijay kumar Pandey
जीवन मर्म
जीवन मर्म
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
रात तन्हा सी
रात तन्हा सी
Dr fauzia Naseem shad
*बहुत जरूरी बूढ़ेपन में, प्रियतम साथ तुम्हारा (गीत)*
*बहुत जरूरी बूढ़ेपन में, प्रियतम साथ तुम्हारा (गीत)*
Ravi Prakash
"मुश्किलों का आदी हो गया हूँ ll
पूर्वार्थ
आज कल रिश्ते भी प्राइवेट जॉब जैसे हो गये है अच्छा ऑफर मिलते
आज कल रिश्ते भी प्राइवेट जॉब जैसे हो गये है अच्छा ऑफर मिलते
Rituraj shivem verma
रिश्ता निभाता है कोई
रिश्ता निभाता है कोई
Sunil Gupta
कर्बला में जां देके
कर्बला में जां देके
shabina. Naaz
Loading...