“कैद”
वो ख़ामोश लब, वो झुकी पलकें,
जाने कितने जुर्म सहती है।
ख़ूबसूरती उसका पिंजरा है,
वो हर वक्त कैद में रहती है।
शीश बदन पे उकरे ज़ख्मों पर,
तन्हा मलहम मलती है।
क्षण-क्षण लखती तन वो अपने,
पल-पल पट वो बदलती है।
सोने की वो गुड़िया है,
हीरे पन्नों से सजती है।
परहेज़ है स्वाभिमान से,
कुंठित आत्मसम्मान तजती है।
सिले लब को हक तो है तबस्सुम का,
सवाल नहीं वो करती है।
सवाल राह नए ज़ख्म का है,
जिसके शिरकत से वो डरती है।
वो ख़ामोश लब, वो झुकी पलकें,
जाने कितने जूर्म सहती हैं…….
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)