केसरिया तिलक लगाता हूं।
रक्त अगर शीतल हो बैठा
तो लो उबाल मैं लाता हूँ।
सदियों से गुंजायमान जो,
एक कीर्ति कथा सुनाता हूँ।
चंद्र के कौशल में मैं,
पद्मिनी के जौहर में मैं,
मैं ही तो राणा के हठ में
शिवराज के तांडव में मैं,
एक पताका हूँ, जो वीरों की,
सांसों से लहराता हूँ।
हरित धरा का शांत अशोक मैं,
केशरिया तिलक लगाता हूँ।
ये चौरंगी ध्वजा थाम कर,
जाने कितने बलिदान हुए।
साहस ना हो गिनने की,
अगणित कोख सुनसान हुए।
शीत हिमालय में शंभु संग,
अरि सेना के तारणहार हुए।
और थार की मरुभूमि में,
रणबांकुर हमीद की ललकार हुए।
शीश हुए हैं आहुत कितने
इस समर चंडी के चरणों में ।
तब जा कर लहराया मैं
इस उन्मुक्त राष्ट्र के नभ में।
यौवन जहाँ शत्रु शव पर
पैर धर रण सैर करे।
और पताका शीश बांध कर,
मातृभूमि के ऋण शेष करे।
उसी राष्ट्र का वही पताका
वही तिरंगा कहलाता हूँ।
हरित धरा का शांत अशोक मैं,
केशरिया तिलक लगाता हूँ।