कृष्ण याज्ञसेनी संवाद
“याज्ञसेनी! सभा मध्ये आज तू क्यों रोती है?
रो रोकर आप अपना धीरज तू क्यों खोती ह?
किस पर बहा रही आँसू तू आज खड़ी यों
‘कायरता पर निज पुरुष की?’ जो पड़े मृत ज्यों
या अपने कौरव-देवरों के खुले अन्याय पर
या कि अपने पति धर्मराज के भूले न्याय पर
या सोच रही, क्यों भीष्म पितामह चुप बैठे हैं
या क्यों आचार्य द्रोण वहाँ यों लुक बैठे हैं?
या ये आँसू उस अंधे की अंधता पर
या कि छीने भव्य पुर की ममता पर?”
“नहीं! नहीं! मेरे आँसू है अपनी ही दीनता पर
सिर मेरा झुका हुआ है अपने भाग्य की हीनता पर
रे कान्हा! मैं रो रही हूं अपनी ही नग्नता पर
आँसू मेरे गाँधारी के संस्कारों की भग्नता पर
सोच रही हूं इस देश में दशा बेचारी नारी की
जहाँ दिशाएं बनी साड़ी हो उसी देश की रानी की
भीष्म द्रोण के मुंह छुपाने का मुझको दुख नहीं
‘तुम नहीं आए सखा!’ दुख है मुझको बस यही।”
“रे सखी क्यों अपने भाग्य की दीनता पर रोती है
जान अपनी शक्तियों को, भीतर जो तेरे सोती है
भाग्य नहीं क्या कर्मों का ही प्रतिबिंब मात्र है
भाग्य की दुहाई देकर बनाती अपंग तू गात्र है
मैं हूं अकेला सुनो द्रौपदी, दुशासन है यहा अनेक
जिसका चीर हरण हुआ है, तुम्ही नहीं हो केवल एक
पुकार-पुकार कर मुझको तुम करो न स्वयं का अपमान
जल जाए जिसमें दुर्योधन, जलो स्वयं तुम अग्नि समान
दुर्गा, चण्डी साक्षात तुम्ही हो उनको न मात्र मूर्ति मानो
महिषासुर मर्दिनी को तुम स्वयं में ही बैठी जानो
हो जाओ यदि एक तुम सब, कौन सामने टिक सकता
पहचानो यदि तुम खुद को, अन्याय आज ही मिट सकता
मोह-ममता में डूबी गांधारी संस्कार यदि न दे पायी
करो धरा को संस्कार युक्त, बढ़कर तुम द्रुपदजायी
और वचन देता हूं मैं, उठाया तुमने शस्त्र यदि बढ़कर
स्वयं दुष्टों को काटूंगा मैं, तेरी असि की धार पर चढ़कर। “