कृष्ण की फितरत राधा की विरह
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
विरहा जीवन की ये तड़फ,
ऐसे धड़के मोरा जिया,
जैसे आषाढ़ कड़के तड़क भड़क..।।
उठती यौवन की चिंगारी,
जलादे उपवन धू धू धड़क धड़क,
प्रेम मिलन की स्वेद बूंद ही,
करदे बंजर हरा भरा चहक महक..।।
बेवस अंखिया ढूँढती उसको,
आता जाता वो जिस सड़क सड़क,
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
बाट जोहती इन नैनों की ये दरक..।।
खोया जीवन,
हर पल उसका चिंतन,
दिन रात पलकों में,
सावन जैसी टपक टपक..
सावन गुजरा शरद आ चली,
फिर भी मेरा यौवन उजड़ भिखड़,
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
इन सूखते होंठों की ये उमस..।।
डसती रातें गिरते तारे,
तोड़ते नसों को तड़क तड़क,
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
आग उगलती चाँदनी रात की ये झड़प..।।
प्यासी गोपियाँ, पासी गायें,
प्यासा गोकुल, प्यासी राधा,
ना प्यास बुझती चाहे पड़े रहे यमुना में,
जैसे जलकुंभी जलज..
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
बिरहा जीवन की तड़फ…..।
नहीं जानना ब्रह्म वेद को,
नहीं जानना निस्वार्थ प्रेम को,
क्या छल करना भी ब्रह्म की फितरत,
तू समझा दे हमको अभी इधर..।।
तू क्या जाने ओरे ऊधो,
छलीया के छल की मेरे दिल में कसक..।।
कभी गोपियाँ कभी राधे,
कभी सत्यभामा कभी रुक्मणी,
ये कृष्ण की फिरतर थी या लीला थी,
सोलह हजार गोपियों साथ महारास किया,
परम् ब्रह्म की वह कौन सी जल क्रीड़ा थी..??
प्रशांत सोलंकी,
नई दिल्ली -07