कृष्णा
” कृष्णा ”
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कृष्ण ने बाँसुरी,
जब अधर पर धरी,
सिगरा बृज बंधनों से
विमुख हो गया।।
घुंघरालि लटें,
लटकीं कनपटी,
मीन-कुंडल कपोलन,
से हैं सटी ।।
बंक चितवन चितेरा
वो चितचोर है
बृज की बाला ओ
वनिता का शोर है । ।
प्रीत की इक अनूठी,
सी गागर हो तुम,
प्रेमियों के प्रेम का,
सागर हो तुम।।
पूज्य संस्कृति के,
महानायक हो तुम,
द्रौपदी और मीरा के,
तारक हो तुम ।।
देवकी – नन्दना,
कालिया – मर्दना,
गोपियों के बने,
प्राण आनन्दना ।।
मूक – गउओं के,
रक्षक गोपेश्वरा,
जड़ प्रकृति चेतना के,
तुम सर्वेश्वरा ।।
एक विनती करूँ,
तुझसे ओ मोहना,
अवतरण हो जगत में,
पुनः कृष्णा ।। ??
स्वरचित: डाॅ.रेखा सक्सेना