‘कृषि’ (हरिहरण घनाक्षरी)
हल रख काँधे पर,
छोड़ चला प्रातः घर,
बहे स्वेद सर-सर,
जोते खेत खेतिहर।
कृषि ही कृषक जग,
स्वर्ण जड़ित नग,
प्रेम बसे रग-रग,
पाये फल भर-भर।
कृषि से ही जीवन,
परिवार उपवन,
पलता है पशु धन,
घृत पय झर-झर।
सबसे उन्नत कर्म,
कृषि ही कृषक धर्म,
इसमें जीवन मर्म,
जग खुशहाली भर।।
स्वरचित-
-गोदाम्बरी नेगी
(हरिद्वार उत्तराखंड)