कृतघ्न मानव
प्रकृति की शीतलता,
थी चारों ओर बिछी हुई,
पेड़- पौधे मुस्कुरा रहे,
कलियाँ आलस्पन से निकल चुकी ।
पुष्प- फल किलकारियाँ भर रहे थे,
तब मानव का जन्म हुआ,
इसी प्रकृति की छाया में,
मानव बढ़-चढ़कर बड़ा हुआ ।
पेड़-पौधों के फल- पुष्प खाकर,
अपना जीवन यापन कर रहा,
प्रतिदिन उस पेड़ के संग,
जीवन के पल था बिता रहा ।
शुक्रियादा करते न थकता,
पेड़ ईश्वर के इस कर्म को,
मानव की खुशियों को उसने,
अपना जन्नत मान लिया |
पर मानव था बड़ा कृतघ्न,
सारे परोपकार भूल गया,
अपनी आवश्यकता के अनुसार,
पेड़ के अंग-प्रत्यंग काट दिया |
जाते-जाते पेड़ कहता गया,
हे मानव! मैने तेरा भला किया,
और तुने मुझे ठुकरा दिया,
मेरी ताकत को तु देखेगा ।
प्रकृति का कहर झेलेगा,
एक वक्त ऐसा आएगा,
तु फल-पुष्प के लिए तरसेगा,
वृक्ष का कथन सत्य हुआ |
प्रकृति है कहर ढाह रही,
चहुँ ओर फैला हाहाकार है,
अपने कर्मों का फल,
मानव अब है भुगत रहा |