कूक रही है कोयल काली
कूक रही है कोयल काली!
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।
मौसम के संग ताल मिलाती फूलों के अनुराग में।
बासंती है सारा आलम गदराया मधुमास में।
डाली डाली कोंपल फूटे रंग लगाने फाग में।।
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
आमों में मन्जरियां फूटीं पीली सरसों लहराई
खुशबू से महका है मधुबन चले मंद मत्त पुरवाई।
मस्ती में मतवाला है मन रंगा रंग रस राग में
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
त्योहारों की धूम मची है चंग धमाल मचाते हैं।
फागुन में रसियों के टोले रंग गुलाल लगाते हैं।
फबता है हर मनुज यहां पर रंग बिरंगी पाग में
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
हरे घास के मैदानों में भटक रहा मन अलबेला
लगा फूल वाले बागों में तितली भौंरों का मेला।
मधुरस पीकर मस्त मदन भी डूब रहा रंग राग में।
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
पीत चुनरिया हरियल लहंगा पहन धरा इतराए।
देख गगन को झुका हुआ सा मन ही मन शरमाए।
झलक रहे गुण कोयल जैसे काले कर्कश काग में।
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
मौज चहकती चिड़िया का मन महक रहा मधुमास में
हर डाली पर यौवन लकदक बहक रहा मधुमास में।
कुदरत का कण कण आतुर हो डूबा प्रीत पराग में।
कूक रही है कोयल काली अमिया वाले बाग में।।
मौसम के संग ताल मिलाती फूलों के अनुराग में।।
विमला महरिया “मौज”