कुसुमकली
आज कुसुम को क्वारंटाइन हुए तेरह दिन बीत गए थे! अपने संपूर्ण परिश्रमी जीवन की अंतिम थकान के उसके माथे पर छलक आए श्रम-बिंदु और पूरे जीवन भर हृदय की गर्त में डूबे अथाह दर्द के अनकहे तरल कण उसकी आँखों में उतरे उसके जीवन-संघर्ष के साक्षी थे! आज उसकी आँखें अतीत में गोते लगा रही थी…और उसके सामने बसंत का चेहरा चित्रित हो गया! बसंत…आह! मेरा बसंत…कहकर कुसुम ने आह भरी..इन क्षणों में बसंत की यादें …ओफ्फो बसंत…तुम फिर दर्द दे रहे हो…क्या मुझे चैन से मरने भी नहीं दोगे! यह सोचकर कुसुम ने अपने शुष्क होठों को निष्ठुरता से भींचा और उसकी निस्तेज आँखों के पलक मुंद गए…अश्रु गालों से लुढ़कते हुए वक्षस्थल के अंतर में लगी आग को बुझाने का असफल प्रयास करने लगे! उसका अतीत मानो एक चलचित्र की भाँति उसके मानस पटल पर उतर गया!
स्नातक करते हुए बसंत से मुलाकात कुसुम की काॅलेज के दिनों में हुई थी…बसंत उसकी प्रिय सखी मधुरिमा का भाई था..काॅलिज के बाद बसंत ने अपना कैरियर बनाने के लिए काफी हाथ-पैर चलाए..लेकिन उसे संतुष्टि न मिल सकी…और अंतत: उसने अपना एक रेस्टोरेंट खोल लिया…उसके रेस्टोरेंट के थोड़ा पीछे मन्हासा नदी बहती थी..जिसके किनारे-किनारे कुसुम और बसंत के प्यार की बेल पनप रही थी…बसंत को देखते ही कुसुम मानो प्राणहीन सी हो जाती थी..उसके घुंघराले बालों में
वो इस कदर खो जाती थी..मानो मन्हासा की कोमल लहरें उसे हल्की थपथपी देकर सुला रही हो…पता नहीं बसंत में ऐसा क्या था….कि हमेशा मुखर रहने वाली कुसुम मौन हो जाती थी..मन्हासा की ठंडी तरल हवाओं में एक-दूसरे की बाँहों में खोए हुए बसंत उसे कहता था …कुसुम …तुम मेरी कुसुमकली हो..प्रत्युत्तर में कुसुम अपने मदमाते स्वरों में सहसा कह जाती….’कुसुम को बसंत का सामीप्य ही तो कुसुमकली बनाता है…जो उसके आगोश में आकर महक जाती है…इठला जाती है…और गौण हो जाती है’….उन दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा..जिसकी साक्षी एकमात्र मधुरिमा थी…प्रेम को छिपाया नहीं जा सकता ..इन दोनों के साथ भी यही हुआ…दोनों के परिवार वालों को पता चल गया…लेकिन भारद्वाज वंशी बसंत के पिता को एक धींवर पुत्री के साथ अपने लड़के की शादी करना अपने मान और मर्यादा के विरुद्ध लगा…हालाँकि कुसुम के पिता बैंक मैनेजर थे…लेकिन ब्राह्मण फिर से निष्ठुर निकले…बिरादरी में क्या इज्जत रहेगी…यह सोचते हुए बसंत के सामने तुगलकी फरमान जारी कर दिया…यह शादी नहीं होगी..परंतु बसंत कुसुम के बिना नहीं रह सकता था..उसने पिता का विरोध किया…चाचा ने समझाया- यदि मधुरिमा किसी नीच कुल के लड़के से शादी करना चाहे तो क्या तुम मान जाओगे…? बसंत थोड़ी देर के लिए विचार में क्या पड़ा कि पिता ने सोचा लड़का लाइन पर आ गया ,लेकिन बसंत के जवाब ने पिता और चाचा दोनों को भड़का दिया…यदि लड़का अपनी मधु से सच्चा प्यार करता होगा तो वह उन दोनों की शादी करा देगा…
फिर क्या था….लात – घूंसों की बारिश से बसंत नहा गया…पिता-चाचा ने खूब तसल्ली की..और पैर पटकते हुए बैठक की ओर निकल गए…
अंतत: वही हुआ, जो प्रेमी-प्रेमिका करते हैं, दोनों ने एक मंदिर में शादी कर ली..बसंत के परिवार वालों ने उसे अपनी संपत्ति और दिल से बेदखल कर दिया…मधुरिमा दोनों से छिप-छिपकर मिलती थी…दिन..महिने…वर्ष गुजरते गए…बसंत ने फिर से मेहनत की और खुद को स्थापित कर लिया..अबकि बार .मन्हासा के दूसरे तट पर उनका रेस्टोरेंट था…जहाँ बसंत और कुसुमकली दिन भर मेहनत करते और रात को एक-दूसरे की बाँहों में दिन-भर की थकान उतारते…उन दोनों के प्रेम के किस्से शादी के बाद भी मशहूर थे…शादी के इतने वर्षों बाद भी प्रेम में तिल भर का भी अंतर नहीं आया था…काम से थकते तो एक-दूसरे की और फेंकी गई निष्कलंक मुस्कान मानों दोनों की थकान उतार देती थी…मन्हासा नदी की उछलती लहरें उनके इस प्रेम पर मानों निछावर होती रहती थी….मधुरिमा अपने भाई-भाभी के खुशी जीवन को देखकर फूली नहीं समाती थी…एक दिन मधुरिमा को आए काफी दिन हो गए…बसंत बेचैन था…कुसुम..मधुरिमा ठीक भी होगी न…महीने भर से ज्यादा हो गया…वो इधर आई नहीं…बसंत ने पूछा..
अपने दोनों बेटों को नहलाती हुई कुसुम के मन में भी यही चल रहा था..मधु को आए काफी समय हो गया था..भगवान जाने ..वो किस हाल में है…लेकिन अपनी बेचैनी को छिपाकर बसंत की ओर मुस्कराते हुए बोली…आप नाहक परेशान हो रहे हो…जानते नहीं हो…मम्मी-पापा कितने सख्त हैं..पहरेदारी बढ़ा दी होगी बेचारी की..और अपनी मधु अब शादी के लायक हो गई है…यह कहकर कुसुम तो दोनों बच्चों को गोद में उठाकर अंदर चली गई..लेकिन शादी शब्द को सुनते ही बसंत विचारमग्न हो गया…काफी देर तक सोचते सोचते अब उसकी चिंता चेहरे पर दिखने लगी थी…कुसुम बाहर आई तो उसने देखा कि बसंत ज्यादा ही चिंता में डूबा था…
क्या हुआ..?
कुसुम…भरभरा गई आवाज बसंत की….अब तो कुसुम भी परेशान हो गई…
क्या हुआ आपको…इतने चिंतित क्यों हो..कुसुम ने बसंत का हाथ पकड़ते हुए कहा..शादी के बाद से आज तक इतना परेशान होते हुए कुसुम ने बसंत को नहीं देखा था..
‘कुसुम..क्या मधु की शादी में हमें बुलाया नहीं जाएगा….क्या मैं अपनी बहन को विदा होते नहीं देख पाऊँगा…थका सा बसंत रोते हुए कुरसी में धंस सा गया..
कुसुम भी अब खुद को संभाल नहीं पाई…आखिर मधुरिमा उसकी बचपन की सहेली थी…लेकिन उसने तुरंत खुद को संभाला..वह बसंत को यूं परेशान नहीं देख सकती थी. .वह जानती थी..दोनों भाई – बहन एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे…उसे पता था..बसंत बिना बुलाए अपने घर नहीं जाएँगे और बसंत के परिवार वाले भी उन्हें मधु की शादी में नहीं बुलाएँगे…अब उसे ही कुछ सोचना होगा, जिससे वह अपने बसंत की आँखों में खुशी के आँसू देख सके…उसने बसंत को शांत किया ..उसे पानी पिलाया…तभी बसंत को अचानक रेस्टोरेंट जाना पड़ा…
कुसुम सोच रही थी कि ऐसा क्या किया जाए …जिससे बसंत की खुशी वापस लौट आए…क्या सच में मधुरिमा के शादी की तैयारियाँ चल रही हैं….पहले ये मालूम करना होगा कि घर पर क्या हो रहा है…मधु आखिर है कहां…
कुसुम आंगन में बैठी यह सब सोच ही रही थी कि उसकी नजर मन्हासा नदी की ओर गई…उसे लगा कि नदी के किनारे जो आदमी खड़ा है…वह उसे जानती है..लेकिन उसे याद नहीं आ रहा कि आखिर वह है कौन….अचानक उसका दिमाग कौंध गया…अरे..! ये तो बसंत के चाचा हैं…क्या ….अरे नहीं…जो वह सोच रही है …क्या यह जानकर बसंत खुश होंगे…परंतु….तभी विचारों के भँवर से निकलकर कुसुम ने एक सख्त निर्णय लिया…और सर पर साड़ी का पल्लू रखते हुए वह नौकरानी को बच्चों का ध्यान रखने का निर्देश देते हुए मन्हासा नदी की ओर चल दी…..!
धीरेंद्र भारद्वाज…बसंत के चाचा….बचपन से मन्हासा नदी के पूर्वी तट पर बने राधाकृष्ण मंदिर में आते थे…45 वर्षीय बाल ब्रह्मचारी धीरेंद्र हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ शरीर के धनी थे! आज उनके चेहरे पर उदासी आँखों में नमी थी…जिसके कारण धीरेंद्र ने स्वयं को ऐसा बना लिया था और जो उनके पूरी उम्र विवाह न करने का उत्तरदायी था…और जिसे उन्होंने उम्र भर प्यार दिया …वही बसंत उनका प्यारा भतीजा उन्हें ऐसे त्याग गया था..जैसे अंत समय में आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है…मंदिर के द्वार पर आकर धीरेंद्र ठिठक गए..और याद करने लगे कि इसी मंदिर के महंत परमानंदगिरि महाराज ने जब बसंत को सभी डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया था तो कहा था कि यदि घर का कोई सदस्य सदा के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर इस मंदिर की एक हजार बार परिक्रमा करके मन्हासा नदी के जल को सौ कलशों में भरकर प्राचीन बरगद के नीचे स्वयंभू प्रकटित राधाकृष्ण की युगल छवि की आराधना करे तो इस बालक(बसंत) के प्राण बच जाएँगे..घर के सभी सदस्यों में धीरेंद्र को छोड़कर कोई भी कुँआरा नहीं था..तब सबकी निराशा से भरी आँखों में आशा का दीप धीरेंद्र ने जलाया …उसने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लिया और आराधना पूरी की…भगवान की कृपा हुई और बसंत चमत्कारिक रूप से ठीक होता चला गया..तब से अब तक धीरेंद्र भारद्वाज ने बसंत पर कोई आँच न आए..भीष्म की तरह अपनी प्रतिज्ञा को अटल रखा!
धीरेंद्र धीरे धीरे चलते हुए युगल छवि के पास आए..हे प्रभु जिसके लिए व्रतधारी बनाया…उसी को निष्ठुर बना दिया…आँसु लुढ़क आए धीरेंद्र के….पाँच साल हो गए उस कठोर को देखे…इतनी चोट दे गया…मान मर्यादा सब भंग कर गया निर्दयी…लेकिन फिर भी क्यों याद आता है…घुटनों के बल पर बैठ गए धीरेंद्र…नटखट के सामने..आँसुओं की मौन अविरल धारा कब सिसकियों में बदल गई. पता ही नहीं चला…कंधे पर किसी का हाथ पाकर मानों किसी तंद्रा से मुक्त हुए धीरेंद्र…पलटकर देखा तो सामने परमानंदगिरि महाराज को पाया….चरणों में गिर पड़े भारद्वाज वंशी धीरेंद्र…कुछ बोलते उससे पहले ही महाराज ने धीरेंद्र को उठाया और अपने हाथों से उनके आँसुओं को पौंछा…और हाथ पकड़कर अपनी गद्दी की ओर ले गए..!
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कुसुम भागी हुई उस और आई..जहाँ उसने बसंत के चाचा को देखा था…आज राधाकृष्ण मंदिर के पास चहल पहल ज्यादा थी..उसे चाचा जी दिखाई नहीं दिए…कहाँ गए होंगे..? मंदिर में तो नहीं गए…यह सोचकर कुसुम ने मंदिर की ओर कदम बढा़ दिए…लेकिन एक भय ने उसके कदम रोक दिए…कैसे सामना करेगी वह उनका…वह तो उनकी सबसे बड़ी दोषी है…उनके वंश के एकमात्र पुत्र को तो लेकर चली आई थी वह…परंपरावादी कठोर ब्रह्मचारी ब्राह्मण का एक आधुनिक विचारधारा वाली कोमल मन वाली स्त्री कैसे सामना कर पाएगी…! उनके शर से बोलोॆ को अपने नेह से भरे दिल से कैसे सहन कर पाएगी….! लेकिन कुसुम ने स्वयं को मजबूत किया..क्योंकि अपने बसंत के लिए वह कुछ भी कर सकती थी…अपने भरे पूरे परिवार को छोड़कर वह बसंत के साथ सात जन्मों तक साथ रहने का वादा करके आई थी..वह बसंत को उदास तक नहीं देख सकती थी…लेकिन आज तो उसने बसंत की आँखों में आँसू देखे थे…उसका दिल तड़प गया..तड़प ने उसके चेहरे को दृढ़ बना दिया और एक गाय …एक शेर से सामना करने चल पड़ी…!
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महाराज के स्पर्श में मानो जादू था..धीरेंद्र के मन में चले झंझावात ने कम होना शुरू कर दिया…
‘महाराज…ये नियति का कैसा खेल है…?
यही तो संसार के खेल हैं बच्चा…जिनमें भाग लेने वाले को सृष्टा के बनाए नियमों पर चलना होता है..
लेकिन ये कैसा नियम है महाराज…जिसे जान से चाहें..वही जान लेले..
ये तुमने कैसे तय किया ….कि जान कौन ले रहा है…क्या तुम इस श्रेणी में नहीं आते बच्चा…महाराज ने धीरेंद्र से सवाल किया
कौनसी श्रेणी में महाराज…धीरेंद्र चौॆके…मैंने क्या किया उसके साथ…उसने सारे संस्कारों को ताक पर रख दिया…खानदान की इज्जत मिट्टी में मिलाकर निर्दयी ऐसे छोड़कर चला गया..जैसे हम उसके लिए कुछ थे ही नहीं…
कौन सी इज्जत..कौनसी मर्यादा…कौनसे संस्कार…आह सी भरकर उठ गए महाराज..थोड़ी देर आँखें बंद की और मुस्करा उठे…धीरेंद्र को ठगा सा तकता देखकर महाराज बोले…आज तुम्हारे मन का एक ऐसा द्वार खुलने वाला है बच्चा..जिसके खुलते ही तुम्हारी बरसों से बनी विचारधारा संकुचित हो जाएगी…और तुम्हारी वो …क्या कहते हैं ..हाँ..मान ..मर्यादा..पानी के बुलबुलों की तरह उड़ जाएगी…!
मैं..मैं …समझा नहीं महाराज…
समझ जाओगे …जाओ..जरा मन्हासा की ठंडी तरल हवाओं में थोड़ी देर के लिए स्वयं को छोड़ दो…इतना कहकर महंत विपरीत दिशा की ओर चले गए…और मन में घुमड़ते सवालों को लेकर धीरेंद्र मन्हासा के तट की ओर चल पड़े…!
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मंदिर में आते ही कुसुम ने युगल छवि को प्रणाम किया और बसंत के चाचा को ढूँढने में संलग्न हो गई..पूरा मंदिर छान चुकी थी वह…परंतु वे नहीं दिखे…तभी उसे पीछे से आवाज आई…गंतव्य यहाँ नहीं पुत्री…मन्हासा पर मिलेगा…उसने देखा ..एक तेजस्वी साधु उसके सामने खड़े थे..उससे पहले कि कुसुम कुछ पूछती..साधु बोले..प्रश्न नहीं..विलंब नहीं..पुत्री…अन्यथा फिर ऐसा अवसर नहीं मिलेगा…यह कहकर साधु पलटे और चले गए…कुसुम ने एक पल के लिए सोचा और मन्हासा की ओर दौड़ लगा दी…! उसने देखा कि कोई व्यक्ति मन्हासा की और मुख किए पीछे हाथ बाँधे खड़ा है…थोड़ा और पास आई..तो उसका दिल धड़क गया…वे बसंत के चाचा ही थे….
मन्हासा नदी के ठंडे थपेड़ों ने धीरेंद्र भारद्वाज को कुछ शुकून पहुँचाने का प्रयास किया..परंतु महाराज के कहे गए वचन एक पहेली की तरह अनबूझ थे, जो शिकन बनकर धीरेंद्र के मस्तक पर झलक रहे थे..तभी उन्हें अपने पैरों पर कोमल स्पर्श की अनुभूति हुई…उन्होंने देखा कि साड़ी में लिपटी एक स्त्री उनके चरणों का स्पर्श कर रही थी..
“कौन हो बेटी तुम” आशीर्वाद देते हुए धीरेंद्र बोले!
स्त्री ने अपने आपको समेट लिया और धीरेंद्र से विपरीत दिशा में मुख करते हुए अपनी संपूर्ण साँसों को सँभाला और धीरेंद्र की और पलट गई….
उस चेहरे को देखते ही धीरेंद्र पर मानो वज्रपात सा हुआ..और तमतमाए चेहरे से उनके मुख से अनायास ही निकल गया…
“कुलघातिनी…तू”….”तेरी हिम्मत कैसे हुई …मेरे सामने आने की…हमारे वंश पर ग्रहण बनकर आई तू…अब क्या चाहती है…” गुस्से में काँप गए धीरेंद्र…!
कुसुम ने धैर्य बनाए रखा…यह विषम परिस्थिति थी…और इसके लिए उसने स्वयं को तैयार कर रखा था…
“चाचा जी…अगर मैं आपके कुल का नाश ही करने के लिए पैदा हुई हूँ …तो मेरे साथ चलने का साहस करोगे…?” दृढ़ता से बोली कुसुम..!
“कहाँ ले जाना चाहती है तू हमें..? पतन के मार्ग पर तो तू हमारे बेटे को ले गई…क्या अब हमें भी भ्रमित करना चाहती है…?”..और किस साहस की बात करती है तू…(व्यंग्य से) वो साहस..जो निर्लज्जता का तूने दिखाया…और एक नीच जाति के व्यक्ति से आशा भी क्या की जा सकती है…सिवाय निर्लज्जता के..”
“तो आपमें साहस नहीं है….”
“लड़की….बेमतलब की बकवास मत कर….” चिल्लाए धीरेंद्र…
“तो चलो फिर…” मानो कुछ ठानकर ही आई थी कुसुम..
“धीरेंद्र कुसुम की दृढ़ता के सामने टिक न सके..और उसके पीछे-पीछे चल दिए ..
कुसुम बसंत के चाचा को घर ले आई…उन्हें बैठक में बिठाया..और अपने दोनों जुड़वा बच्चों को लाकर उनके सामने बैठा दिया….उन दोनों बच्चों को देखकर धीरेंद्र की आँखें सिकुड़ गई…उनमें स्नेह की उर्मियाँ हिल्लोर उठी…वे दोनों बच्चे बसंत के प्रतिरूप ही थे….
“अगर मैं आपके कुल के लिए कुलघातिनी हूँ..तो ये दोनों किसके कुल की बेल बढ़ाएँगे…सिसक उठी कुसुम…
“क्या नीच जाति की लड़कियाँ …लड़कियाँ नहीं होती…क्या प्रेम करना इतना भयंकर गुनाह है …स्त्रियाँ तो धरती होती हैं…चाचा जी..आप उनमें जैसा बीज बोओगे…वैसा ही पाओगे….” रोते हुए बोलती रही कुसुम..
और उधर धीरेंद्र भारद्वाज उन बच्चों को देखकर अंदर ही अंदर पिघलते जा रहे थे….कुसुम की बातों ने उनकी आँखों से एक संकीर्णता की परत को मानों उधेड़ दिया था…प्रेम सब बंधनों से रहित होता है…वह उच्चता या निम्नता नहीं देखता…बस…हो जाता है…उनकी आँखों से छलकते आँसुओं ने उनके हृदय को धो दिया..और उन्होंने बसंत के दोनों यमजों को उठाकर हृदय से लगा लिया…
उधर कुसुम अपनी पहली परीक्षा में सफल हो चुकी थी…उसकी नम आँखें मुस्कुराकर विजय का उद्घोष कर रही थी .
धीरेंद्र ने कुसुम की ओर देखा…और उसे अपने पास बुलाकर उसके सिर पर हाथ रख दिया और बोले…”मुझे माफ कर दे बेटी ..”
तभी कुसुम ने “चाचा जी” कहते हुए उनके पैरों को छू लिया….
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बसंत को लगा कि बैठक में कोई मर्द अंश और वंश के साथ खेल रहा है..तभी दरवाजे पर कुसुम आई..
“कौन आया है..कुसुम..?” बसंत ने पूछा!
“खुद ही देख लो…” कुसुम ने मुस्कराकर कहा.
बसंत ने जैसे ही बैठक में देखा..तो उसे विश्वास नहीं हुआ..उसके चाचा बच्चों के साथ खेल रहे थे..!
“चा..चा..जी…”
“बसंत….! चाचा-भतीजे की आँखों से गंगा-यमुना बह निकली….सारी स्थिति का पता चलते ही बसंत ने कुसुम को प्यार और गर्व भरी आँखों से देखा….धीरेंद्र के अथक प्रयासों के बाद और बच्चों के कारण बसंत और कुसुम को परिवार ने अपना लिया….परंतु बसंत के पिता कुसुम से दूरी ही बनाकर रखते थे…वे शायद अब भी पूर्णरूप से उसे अपना नहीं पाए थे…बसंत के हृदय में यह सब टीस की तरह चुभता था..परंतु कुसुम के निश्छल व्यवहार और रात-दिन की अपनी सेवा से उसने बसंत के पिता वीरेंद्र का भी मन जीत लिया…अब वीरेंद्र पूरे गाँव में कुसुम की प्रशंसा करने से भी नहीं चूकते थे….
अपनी कुसुमकली की प्रशंसा सुन-सुनकर बसंत फूला नहीं समाता था…वह तो कुसुम से कहता भी था…की कुसुम का मिलना उसके किए हुए पिछले जन्म के किन्हीं पुण्य कर्मों का फल है….!
मधुरिमा की शादी का पूरा का पूरा भार बसंत और कुसुम ने उठा लिया….बड़े ही धूमधाम से मधु की शादी हुई…मधु के विदा होते ही अब घर में बसंत-कुसुम और उनके जुड़वाँ पुत्र ही थे…जिन्हें देख-देखकर परिवार वाले जीते थे….समय पंख लगाकर उड़ गया…बसंत के पिता हर्टअटैक में इस संसार को छोड़कर चले गए….बसंत के कांधों पर परिवार-व्यापार का बोझ रखकर धीरेंद्र भारद्वाज ने संन्यास ग्रहण कर सब मोह-माया को त्याग दिया…अंश ने इंजीनियर की डिग्री ली और शहर की एक बड़ी फर्म में नौकरी कर ली..वंश ने डाॅक्टरी की और गाँव में ही एक छोटा सा अस्पताल खोल लिया….कुसुम और बसंत के दिन अच्छे कट रहे थे कि तभी कुसुम पर मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा……
आज बसंत ने पार्क के बदले सड़क के किनारे-किनारे सैर करने की सोची..सुबह की महकती हवा और स्वच्छ वातावरण में बसंत ने मन्हासा नदी तक चलते-चलते जाने के बारे में विचार किया…अपनी जवानी में तो बसंत घर से मन्हासा तक सड़क द्वारा दौड़कर जाता था और लौटता भी दौड़ता हुआ आता था…लेकिन बढ़ती उम्र में अब वो ताकत कहाँ..? बसंत ने तो कुसुम को भी कहा था ….चलो कुसुम आज घूमते हुए वहाँ चलते हैं..जहां हम पहली बार मिले थे…लेकिन कुसुम ने शर्माते हुए अपने पोते को गोद में लिए हुए मना कर दिया..बहुत काम है जी…छोटी बहु प्रेगनेंट है…बहुत ध्यान रखना पड़ता है…बहु को सुबह को जल्दी उठाना ठीक नहीं…मैं तो उठ ही जाती हूँ जल्दी..तो घर के सुबह के काम मैं ही कर लूंगी…तो चलो ठीक है..आज मैं भी नहीं जाता..बसंत ने सोफे पर धँसते हुए कहा…नहीं जी..अपनी सेहत का ध्यान रखो…देखो ये अपना पेट..कहां बढ़ता जा रहा है..इसे रोको..और सैर करने निकलो..कुसुम ने बसंत को सोफे से उठाते हुए कहा..
और अनमना सा बसंत बाहर निकल आया…
इसी सोच-विचार में चलते हुए बसंत ने देखा कि सड़क के बीच में कोई लेटा है…अरे…यह बीच में क्यों लेटा है…चलती सड़क है…कहीं किसी वाहन ने टक्कर मार दी तो…बसंत उसके पास गया तो उसके नथुनों में शराब की तेज गंध चढ़ गई…वाह..! महानुभाव ने सुबह-सुबह ही चढ़ा ली…अरे भाई..उठो…बीच सड़क में क्यों लेटे हो…कोई टक्कर मार गया तो…! लेकिन मजाल है .. मधुरानी के संग लेटे हुए को कोई उठा सके…बसंत ने पूरी कोशिश की…लेकिन वह उठा नहीं…बसंत ने उसे सहारा देकर उठाया और उसके हाथ को कंधे पर रखते हुए सड़क के किनारे तक लाने की सोची..वह नशे में बड़बड़ा रहा था…क्या..यह समझ से बाहर था..तभी एक अनियंत्रित कार सड़क पर झूलती हुई तेजी से उनकी ओर बढ़ रही थी…बसंत ने तेजी से पैर उठाए..लेकिन वह नशेड़ी उस पर झूल ही गया.अब बोझ उठाना भारी हो गया…कार नजदीक आ गई थी..पता नहीं क्यों कार वाला भी ब्रेक नहीं मार पाया…बसंत को लगा कि यह कार टक्कर जरूर मारेगी..बसंत ने उस नशेड़ी को धक्का देकर किनारे की ओर कर दिया..लेकिन खुद सँभल नहीं पाए और कार उन्हें रौंदते हुए चली गई..कार वाला डर के कारण रुका नहीं …भागा चला गया….!
कुसुम घर के कामों से मुक्त होकर बैठी ही थी..फोन आ गया…और फोन को सुनते ही “बसंत…बसंत..” चिल्लाते हुए अस्पताल की और दौड़ पड़ी…सारी कोशिशें बेकार चली गई…”बच्चों का ध्यान रखना..” कहते हुए बसंत ने कुसुम की गोद में दम तोड़ दिया…जिस गोद में सर रखकर बसंत ने साथ जीने मरने की कसम खाई थी..उसी गोद में सर रखकर बसंत कुसुम को अकेला छोड़कर चला गया…बसंत के बिना अकेले जीने का विचार ही कुसुम पर वज्रपात था…उसकी बेहोशी टूट ही नहीं रही थी…
बसंत का अंतिम संस्कार हो चुके लगभग पाँच महीने बीत चुके थे…इस दौरान बहुत कुछ हो चुका था..कुसुम को ब्रेन स्ट्रोक हुआ….और उसके आधे शरीर ने काम करना बंद कर दिया…एक और पड़ी हुई कुसुम बसंत के ख्यालों में खोई रहती थी..न खाने की सुध …न पीने की सुध थी…बेटों-बहुओं का व्यवहार भी रुक्ष हो चला था…
“देखिए जी..ऐसे नहीं चलेगा…क्या मम्मी जी की सेवा करना हमारे ऊपर ही है…जेठ जी को भी तो इस बारे में कुछ सोचना चाहिए..आखिर आधी जायदाद तो वे भी लेंगे न…” वंश की पत्नी ने उन सोने के कंगनों से भरे अपने हाथों को नचाते हुए कहा..जो कभी कुसुम के हाथों की शान थे…जिन्हें वंश की पत्नी ने कुसुम के बीमार होते ही निकाल लिया था…”कहती तो सही हो…लेकिन अंश यहाँ आएगा नहीं ..और मम्मी का इलाज तो यहीं मेरे पास ही चल रहा है न…” तो आप मम्मी को अपने अस्पताल में ही क्यों नहीं ले जाते….वहां नर्से तो हैं ही देखभाल करने को…तुम्हें पता है…मेरा काम कितना बढ़ जाता है…ऊपर से यश का भी ध्यान रखना पड़ता है..” इशिता(वंश की पत्नी ) बोली..
“अरे…वैसे ही बैड कम हैं वहाँ..और सोचो अगर मैने मम्मी को वहाँ रखा तो कितना नुकसान होगा..?” वंश ने कहा.!
“तो मुझे तो पता नहीं ..आज अपने भाई को फोन करो…और उन्हें बोलो कि इस आफत (कुसुम) को अब वे ले जाएँ…” इतना कहकर इशिता यश के रोने की आवाज सुनकर उसके पास चली गई..!
कुसुम अपने कमरे में पड़ी सब सुन रही थी….और उसके पास अब बसंत की यादों और रोने के सिवाय कुछ नहीं था..!
अंश आया था…अपनी पत्नी के साथ…कुसुम ने सोचा …चलो बड़ा बेटा तो सही होगा ही..अपना शेष समय वहीं काट लूंगी…वैसे कुसुम को शहर की हवा नहीं भाती थी..परंतु उसे तो एक कमरे और एक खाट में ही समय काटना था…चली जाऊँगी…तभी उसके कानों में कुछ आवाजें पड़ी..उसने दीवार की ओर कान लगा लिए..
“वंश तुम डाॅक्टर हो…तुम अच्छे से ध्यान रख सकते हो मम्मी का…”
“तो क्या शहर में डाॅक्टर नहीं हैं ..भाई साहब..” अंश से पहले ही उसकी पत्नी बोली!
“अरॆ! इशिता …वहाँ डाॅक्टर को बार-बार घर बुलाना पड़ेगा..और ये तो घर पर रहते ही नहीं…मुझे भी अब महिला मंडल का अध्यक्ष का पद मुश्किल से मिला है…डेली मीटिंग्स होती हैं…घर पर रहूँगी तो वह हाथ से निकल जाएगा..बताओ फिर ..मम्मी का ध्यान कौन रखेगा..? अंश की पत्नी रेखा बोली!
“तो भाभी जी..मेरे जान – पहचान के बहुत से डाॅक्टर हैं…तुम कहो तो मैं उनसे बात कर लूंगा…वे कोई न कोई नर्स का इंतजाम करा ही देंगे…” वंश बोला!
“न भाई” अंश बोला…”वैसे ही बहुत खर्चे हैं शहर में…बच्चों की पढ़ाई..मकान का किराया…खाना-पीना…इतनी तो कमाई भी नहीं है मेरी…पचास-साठ ही अब तो मुश्किल से पड़ रहे हैं..”
” तो यहाँ कौन सा खजाना खुदा पड़ा है…” इशिता झल्लाई..
” देख भाई..” अंश ने वंश के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा…”यूँ जोश में तो कुछ होगा नहीं…अगर कुछ सोचना है तो दिमाग को ठंडा करके ही सोचना होगा…चिंता मत कर…मैं कुछ इंतजामात करता हूं मम्मी का…!”
आगे सुन नहीं पाई कुसुम…मेरा इंतजामात…ओह बसंत ..अच्छा हुआ तुम पहले चले गए…वरना अपनी औलाद का यह रूप तुम सहन नहीं कर पाते…और मेरे बिना ये नीच तुम्हें सड़ा देते…” कुसुम की आँखें सावन की तरह झर रही थी…ये कौन से पाप कर्म का फल था…जो उसे भुगतना था…हाय बसंत..! ये संतानें हमारी-तुम्हारी ही तो थी…इतनी कठोर…निष्ठुर…! कौन से संस्कार पड़े इन पर….” और कुसुम ने आँखें मीच ली…
समय फिर गुजरा…अंश अपने शहर चला गया था और वंश अपने कार्य में व्यस्त हो गया था..इशिता का व्यवहार अब इतना रूखा था कि कुसुम को बात-बात पर झिड़कती रहती थी..कुसुम अब व्हील चेयर के सहारे इधर-उधर फिर लेती थी..!
बसंत ने कभी कुसुम को प्यार से भी झिड़का न था..लेकिन अब कुसुम अपने बच्चों का गुस्सा झेलती थी…ये कैसी विडंबना थी…! लेकिन कुसुम उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती थी…उसे बसंत के अंतिम शब्द याद आ जाते थे…”बच्चों का ध्यान रखना..” उसनें अपने जीवन में बसंत से किया हर वादा निभाया था…तो भला वह अब वादाखिलाफी कैसे कर सकती थी…वह चाहती थी कि उसकी अंतिम यात्रा इसी घर से निकले..लेकिन वह दिन अभी दूर था…उसे नहीं पता था कि अभी इस निर्मोही संसार की निष्ठुरता उसे अभी और झेलनी थी…!
काफी दिन बीत गए…कुसुम के स्वास्थ्य में थोड़ा सा सुधार और हुआ..अब वह धीरे-धीरे व्हील चेयर से खड़ी होकर थोड़ी दूर तक घूम सकती थी…लेकिन वंश की पत्नी इशिता कुसुम की तीमारदारी करते – करते परेशान हो चुकी थी..रात को वंश आया..तो उसने इशिता को काफी गुस्से में देखा..
“क्या हुआ” वंश ने पूछा..लेकिन इशिता ने कोई जवाब नहीं दिया और गुस्से में पैर पटकती हुई वंश के लिए पानी लेने चली गई..वापस आई तो वंश ने फिर पूछा..
“आखिर हुआ क्या है…बताओगी नहीं..तो पता कैसे चलेगा..?
“इस बुढ़िया से मेरा पीछा कब छूटेगा..? आपके भैया तो अपनी जान बचा के शहर मेॆ दुबककर बैठ गए हैं…वे तो मौज उड़ा रहे हैं..और मैं यहाँ अकेली कितनी परेशानी झेल रही हूं..तुम्हें क्या पता…” सोफे में थकी सी धँसते हुए बोली इशिता…
“देखो..तुम चिंता मत करो..मैं आज ही अंश से बात करता हूँ..!”
अंश आ चुका था…उसकी पत्नी उसके साथ नहीं थी…आखिर महिला मंडल की अध्यक्षा थी वह…व्यस्त थी..आ नहीं सकी..
अंश कुसुम के कमरे में था..
“मम्मी…”
काफी दिन हो चुके थे अंश को देखे..प्यार उमड़ आया..आखिर मां थी वो..परंतु तभी उसके सामने उसकी बातें याद आ गई…”मेरा इंतजामात..”..होठ भीचकर पड़ी रही कुसुम..
“मम्मा ..मैं अंश..”
“मेरा इंतजामात करने आया है ..बेटा…” कुसुम नेॆ पड़े-पड़े लड़खड़ाती आवाज में कहा..
सहम गया अंश…”क्या…क्या मम्मा..”
“कुछ नहीं…बोल…कैसा है तू…” ठंडी साँस भरते हुए कहा..
“वो…वो..मम्मा आपको कहीं और शिफ्ट करना है..”
“कहाँ..”
“वहाँ…वहाँ आपका और अच्छे से इलाज होगा..”
“लेकिन मैं तो यहाँ ठीक हूँ…और ठीक भी होती जा रही हूँ….”
कुसुम ने अंश को देखते हुए कहा…अंश पसीने-पसीने हो गया…झूठ सच के तेज से घबरा गया…वह कुसुम की आँखों में देख नहीं पाया..यह सब देखकर कुसुम के चेहरे पर पथराई सी मुस्कान आ गई..उसने स्वयं को भाग्य के सहारे छोड़ दिया..
“अगर किसी को पता चल गया तो…” घबराई सी इशिता बोली..
“नहीं पता चलेगा…वह शहर से काफी दूर है…कोई जल्दी सी पहुँच नहीं पाएगा वहाँ..” अंश ने कहा..
“फिर भी वंश ..अगर कोई रास्ते में मिल गया..और पूछ बैठा…” घबराकर वंश बोला..
“देखो…हम यहाँ से आज रात को निकलेंगे..उस समय हमें कोई नहीं टकराएगा…और हाँ रास्ते में हमें रेखा मिलेगी…और…”
“और पेपर कब तैयार होंगे…” अंश के बीच में ही वंश बोल पड़ा..
“अरे वही तो बता रहा हूँ…रेखा दीनानाथ जी..अपने वकील साहब…के पास पहुँच चुकी है..वह जायदाद के सारे पेपर तैयार करवालेगी. और रास्ते मेॆं हम उसे ले लेंगे ..फिर मम्मा के हस्ताक्षर करवा लेंगे..” अंश बोला
“देखो..वो शहर में महाजन बस्ती के पास वाली 500 गज जमीन मेरे नाम होनी चाहिए..मुझे वहाँ एक बड़ा सा अस्पताल बनवाना है..” वंश ने कहा..
“अरे..वो सब मैं रेखा को कह चुका हूं..वह करवा लेगी..अब आगे का प्लान सुनो…” और इस तरह वे कलयुगी संतानें अपनी निकृष्ट योजना को अंजाम देने में लग गई…
रेखा को बीच रास्ते से ले लिया गया ….कुसुम एक अंजाने सफर पर निकल गई थी…लेकिन उसने किसी से कुछ नहीं पूछा..उसने खुद को नियति पर छोड़ दिया था…उन चारों ने एक दूसरे की ओर देखा…तभी अंश ने पेपरों का एक पुलिंदा निकाला और कुसुम से बोला..
” वो..वो मम्मा ये कुछ जरूरी कागजात हैं..इसमें आपको कुछ साइन करने होॆगे…”
” क्या लिखा है इसमें…? ” मेरा चश्मा कहां है…” कुसुम ने उन पेपरो को पढने की नाकाम कोशिश की..क्योंकि उसका चश्मा उसके पास नहीं था..
“मैं..मैं..बताता हूं ..मम्मा..” वंश बोला..
“नहीं ..मैं पढ़ सकती हूं…मेरा चश्मा ढूंढो..मै लाई थी साथ में..”
वास्तव में चश्मा रास्ते में ही इशिता ने चोरी से कुसुम के पास से उठाकर बाहर फेंक दिया था…चश्मा नहीं मिला..कुसुम पेपरों को आँखें फाड़-फाड़कर देखती रही..लेकिन कुछ समझ नहीं पाई…तभी उसे एक शब्द “संपत्ति” समझ में आ गया..उसका फाॅण्ट अन्य शब्दों से थोड़ा बड़ा था…कुसुम को समझने में देर नहीं लगी…उसके बेटे उसकी जायदाद का बँटवारा कर रहे थे…लेकिन यह जायदाद वैसे भी तो उनकी ही थी..उसके मरने के बाद वो इनकी ही तो होनी थी…क्या वो अपने साथ ले जाती…! क्या मेरे मरने तक का भी सब्र नहीॆ इन्हें…यह सब सोचते..सोचते वह कब बेहोश हुई..पता भी न चला…
काफी कोशिशें की उन्होॆंने..लेकिन कुसुम को होश नहीं आया..
” बुढिया मर गई क्या..” रेखा झल्लाते हुए बोली
” नहीं …वंश बोला..”मम्मा गहरी बेहोशी में है..जो किसी सदमें या गहरी चोट के कारण हो जाती है..”
“तो..अब क्या..” इशिता झल्लाई..
“अब इंजेक्शन देना पड़ेगा…मम्मा को हमारे अस्पताल में…नहीं..नहीं..घर ले जाना पड़ेगा..” वंश ने कहा..
वे कुसुम को वृद्धाश्रम ले जाना चाहते थे..लेकिन कुसुम की बेहोशी ने उनके करे-कराए पर पानी फेर दिया….तभी कोविड-19 जैसे वायरस ने विश्व पर हमला कर दिया…सभी देशों की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई…जिनमें भारत भी था…वंश दिन रात अस्पताल में व्यस्त रहने लगा…तभी एक दिन वंश के दिमाग में एक विचार कौंधा…उसने तभी अंश को फोन किया और तुरंत उसे घर आने के लिए कहा…
जब भी मनुष्य की स्वार्थ-लिप्सा बलवती होती है, तो वह सभी रिश्ते-नातों, संस्कारों आदि को ताक पर रख देता है…इस संसार में आज धन-संपत्ति का जो स्थान है, वो कदाचित स्वयं ईश्वर का भी नहीं है…इस धन-संपत्ति को पाने के लिए आधुनिक मनुष्य हर नीच कर्म करने को तैयार हो जाता है…और आज कुसुम की अधम संतानें ऐसे ही कर्म की योजना की रूपरेखा तैयार करने में संलग्न थी..
एक कमरे में अंश और उसकी पत्नी रेखा तथा वंश और उसकी पत्नी इशिता एक गंभीर वार्तालाप में व्यस्त थे…
तभी अंश खुशी से उछलते हुए बोला- “वो मारा पापड़ वाले को…अरे वंश क्या मस्त प्लान बनाया है..ये तो सक्सेस होगा ही होगा..”
“देखो..अब हमें अपने-अपने कार्यों में लग जाना है…ठीक है न…एम राइट… ?” दर्प से शर्ट के ऊपरी बटनों और सिर को ऊपर उठाते हुए वंश बोला..चारों ने कुटिलता से एक-दूसरे की तरफ मुस्कान उछाली..और खड़े होकर कमरे से बाहर निकल गए….
कुसुम हैरान थी..अपने बच्चों के बदले व्यवहार को देखकर…दोनों बहुए उससे प्यार से पेश आती थी..और उसके सोने-खाने-दवाई का इंतजाम समय पर कर रही थी…दोनों बेटे भी घंटों बैठकर उससे दुख-सुख की बतियाते थे..कुसुम को लगा कि हो सकता है ..उसके अंत समय में भगवान ने उसकी सुन ली हो …और बच्चे बदल गए हों..लेकिन वह नहीं जानती थी…कि वे एक षड्यंत्र को बुनने में लगे थे..
एक दिन कुसुम को चक्कर से आने लगे..उसने खड़े होने की पुरजोर कोशिश की लेकिन वह खड़ी नहीं हो पा रही थी..उसे गले में काँटा-सा महसूस हुआ..और उल्टियां आनी शुरू हो गई..एक-दो-तीन उल्टियां और कुसुम बेहोश हो गई….
कुसुम की हालत को देखकर वंश की बाँछें खिल गई..उसने अंश को बुलाया…चारों शैतानों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और फिर वंश ने एंबुलेंस का नंबर मिला दिया..
कुसुम ने जैसे ही आँखें खोली..उसे घुप्प अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं दिखाई दिया…वह बेचैन थी कि आखिर वह है कहाँ…उसका सारा बदन टूट रहा था..रह-रहकर उबकाई आ रही थी…थोड़ी देर में उसे कमरा खुलने की आवाज सुनाई दी…उसने उठने की कोशिश की..परंतु वह उठ नहीं पाई..शरीर के हर अंग से मानों जान ही निकल चुकी थी…तभी लाइट जली..और उसने अपने सामने वंश को देखा …जिसने पी पी ई पहन रखी थी(उससे पूरा शरीर ढका रहता है).वंश को देखते ही कुसुम बोली..”बेटा ..मैं कहां हूं..और मुझे हुआ क्या है…”
“मम्मा आपकी हालत सीरियस है..यहाँ आपको कुछ दिन रखा जाएगा…और इलाज किया जाएगा..वैसे डाॅण्ट वरी मम्मा…मैं यहीं हूं…अस्पताल में ही..मैंं तो आपके पास आता ही रहूंगा…ये कुछ पेपर हैं मम्मा ..इन पर आपको साइन करने होंगे..”
“ये कैसे पेपर हैं बेटा..” मुश्किल से बोल पाई कुसुम..उसका बदन टूट रहा था…”मम्मा ये बस एक खानापूर्ति होती है..जिस पर पैशेंट और उसके गार्जियन को साइन करने पड़ते हैं..हमने साइन कर दिए हैं ..बस..बस आपको करने हैं..चिंता न करो ..मम्मा आप जल्दी ही ठीक हो जाएँगी..” वंश ने कुसुम के हाथ में पेन देते हुए कहा…”ठीक है बेटा…पर मुझे हुआ …” जल्दी करे मम्मा..मुझे डाॅक्टर से भी मिलना है..जो अमेरिका से विशेष आपके इलाज के लिए ही आए हैं…” वंश ने जल्दबाजी में कहा..
और फिर कुसुम ने लड़खड़ाते हुए हाथों से साइन कर दिए. वंश ने पेपरों पर साइन होते ही बाज की तरह झपट्टा मारा..और शीघ्रता से बाहर निकल गया…
एक कमरे में वंश -इशिता और अंश- रेखा बैठे हुए बीयर का आनंद उड़ा रहे थे…”देखा मेरा प्लान…वंश ने बीयर को पीते हुए कहा….ठठाकर हँस पड़ा अंश…”वाह मेरे भाई वंश ..मान गए तुझे…क्या गेम खेला…आखिरकार ये जायदाद हमारी हो ही गई….” चारों शैतानों ने भेड़ियों की तरह अट्टहास किया और..चीयर्स..कहते हुए बीयर के गिलासों को मुँह से लगा लिया…
कुसुम को उस कमरे में कई दिन बीत गए..लेकिन उसे बाहर नहीं जाने दिया जाता था…एक दिन कुसुम ने उस नर्स से पूछ ही लिया..जो अपने पूरे शरीर को अजीब से कपड़ों में ढककर उसके पास आया करती थी…”नर्स ..मुझे यहां क्यों रखा गया है..और वंश भी नहीं आता..”
“आपको नहीं पता अम्मा जी..कि आपको यहां क्यों रखा गया है..” हैरानी से बोली नर्स …
“वंश ने कहा था..मैं बीमार हूं…लेकिन अब तो शायद मैं ठीक हो गई हूं…”
“नहीं अम्मा जी..आप शायद ठीक फील कर रहीं हों..लेकिन आपके सिम्पट्म्स के अनुसार आप पर कोरोना का डाउट है..आप यहां चौदह दिन के लिए क्वारंटाइन हैं..आपकी कोरोना रिपोर्ट होगी ..यदि आप पाॅजिटिव हुई तो फिर आपका ट्रीटमेंट किया जाएगा…”
“क्या…” कुसुम के पैरों से जान सी निकल गई..” लेकिन मुझे वंश ने बताया तो नहीं…” कोरोना के क्या लक्षण होते हैं …” कुसुम ने पूछा..” नजला, जुकाम..बुखार और गले में दर्द..तथा धीरे-धीरे सांस लेने में कमी होती जाती है..” नर्स ने बताया…”लेकिन बेटा ..मुझे तो शुरू से ही इनमें से कोई सा भी लक्षण नहीं..” कुसुम बोली..
“यह देखिए..अम्मा जी..आपकी रिपोर्ट के अनुसार आप कई दिनों से बुखार-नजला-जुकाम से पीड़ित हैं..इस रिपोर्ट के अनुसार डाॅक्टर साहब(वंश) आपको कई बार आॅक्सीजन भी दे चुके हैं…” इतना कह और रिपोर्ट दिखाकर नर्स तो चली गई..लेकिन कुसुम को विचारमग्न छोड़ गई…..वंश ने झूठी रिपोर्ट बनवाई..इसका मतलब वह कुछ दिन का उनका प्रेम..सब धोखा और छलावा था…जीवन में किसी भी मोड़ पर कुसुम छली नहीं गई थी..इसलिए अपने बच्चों का छल पकड़ नहीं पाई..और ठगी गई..इस संपत्ति के लिए इतना नीचे गिरते चले गए उसके बच्चे..ओह बसंत …किसके संस्कार पड़ गए इन पर..हम-तुम तो ऐसे नहीं थे….और अतीत के झरोखे से निकल आई कुसुम…आज उसे क्वारंटाइन हुए तेरह दिन बीत गए थे…बसंत की यादों और बच्चों के छल ने उसे इतना तोड़ दिया था कि उसने खाना – पीना सब छोड़ दिया था…शरीर बिलकुल जीर्ण हो चुका था…रात बहुत हो चुकी थी..लेकिन कुसुम की आँखों से नींद कोसों दूर थी…बसंत के जाने का दुख तो वह बर्दाश्त कर गई थी..लेकिन बच्चों द्वारा किए गए छल ने उसके हृदय को नफरत से भर दिया..उसके हृदय से अपने बच्चों के लिए बद्दुआएँ निकलने ही वाली थी कि उसके कानों में कुछ शब्द गूंज गए..”नहीं कुसुमकली नहीं…” ये शब्द तो…कुसुम ने खुशी से खिड़की की और देखा..वहां धुआँ सा था…जिसके पीछे शायद कोई खड़ा था…धुआँ छटा तो चेहरा स्पष्ट हुआ …वह बसंत था..”ब…सं..त..कुसुम का गला भर आया…”आप…”…”हाँ..कुसुम..मैं तुम्हे लेने आया हूं…!”बसंत…” कहकर कुसुम भागकर बसंत के गले लग गई…”मैं..यहां नहीं रहना चाहती..मुझे यहां से ले चलो बसंत…” बसंत मुस्कुराया..बोला..”जरा उधर तो देखो कुसुम…” कुसुम ने बिस्तर की ओर देखा..उसे वहां वह स्वयं पड़ी दिखाई दी…निश्चल…अचेत…इसका मतलब…यह सोचते ही उसकी आँखें गोल हो गई…और उसने बसंत को देखा…बसंत मुस्कुराया–“हाँ…कुसुम..अब तुम इन सांसारिक कष्टों से मुक्त हो गई हो…अब उन्हें बद्दुआ देने की क्या जरूरत…”
“लेकिन…बसंत..आप नहीं जानते ..उन्होंने मेरे साथ क्या-क्या किया..अपने ही बेटों ने” और रो पड़ी कुसुम.
“मैं सब जानता हूँ..कुसुम..मैंने सब देखा..मैं तुम्हारे साथ ही था”..”लेकिन मैंने तो नहीं देखा आपको..” कुसुम संशय में बोली..”मैं..मैं तुम्हारी हर यादों में…आँसुओं में..हर आह..बेचैनी में तुम्हारे साथ था कुसुम…जब भी इस संसार ने तुम्हें दुख दिया…मैं तुम्हारे पास मौजूद होता था कुसुम…और इस संसार का नियम है कुसुम..जैसा बोओगे..वैसा काटोगे…इसलिए बद्दुआ की जरूरत ही नहीं.. ” बसंत की बातों ने कुसुम की आत्मा को शांत कर दिया था…अचानक कुसुम ने ऊपर से ही मन्हासा की उछलती लहरों को देखा…मानों वे भी कुसुम को लहरा-लहराकर अलविदा कह रही थी…..
और अगले दिन अपने चौदहवें दिन क्वारंटाइन सेंटर में कुसुमकली बसंत भारद्वाज मृत पाई गईं….
#समाप्त
सोनू हंस