कुल्हड़ की चुस्की (कविता)
“कुल्हड़ की चुस्की”
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घाट किनारे ठाट-बाट से
यारों की महफ़िल सजती थी,
चाय के संग धूम धड़ाका
कुल्हड़ की प्याली जमती थी।
चीनी मिट्टी के प्यालों में
मधुर छुअन अहसास नहीं है,
लीकर वाली चाय के संग
मिटी अधर की प्यास कहीं है?
कुल्हड़ से चिपके अधरों ने
हम सबको जाम पिलाया था,
प्यासे अधरों को चुंबन का
मीठा अहसास दिलाया था।
गोल कपोल किनारे इसके
देती चुंबन इसकी चुस्की,
याद करूँ जब बीते लम्हे
आ जाती है मुझको हिचकी।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी, (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर