कुर्सी
देख कितना है स्वार्थी, कुर्सी का गंदा खेल
बंदा बंदे से कट मरे , नहीं किसी से मेल
इंसानियत का पतन हो, मानवता का लोप
कुर्सी की अफरातफरी,शान्ति संतोष लोप
झूठ मक्कारी की नीति, राजनीति का खेल
कुर्सी उसी को है मिले, जिसमें जितना तेल
ऊपर जो दिखाई दे, मन में है कुछ ओर
चेहरे सब बनावटी ,अलग- अलग है छोर
जब तक कुर्सी नहीं मिले,वादों की भरमार
कुर्सी हाथ है जब लगे, शेष सब दरकिनार
कुर्सी कुर्सी के खेल में, नहीं किसी से प्रीत
टांग सदा हैं खींचते, नफरत की है जीत
मानवता है हारती , दानवता की जीत
इंसानियत है हारती , हैवानियत की जीत
निज पेट सदैव भरते, भरते खुद की जेब
खजाने खाली कर दें ,भर-भर अपनी जेब
कुर्सी के यहाँ खेल में, नहीं होता संतुष्ट
कुर्सी बैठ ढ़ोंग रचते , रचनाकार भ्रष्ट
-सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैधल)
9896872258