कुर्सी की लालसा
ये राजनीति है साहब
अच्छे अच्छो को निगल गई
और मजाल डकार भी ली हो।
शांत बने अनजान बैठे हैं
जैसे निगलना कोई आम बात हो
और मजाल हुंकार भी लो हो।।
कुर्सी के लालच ने
एक अच्छे खासे इंसान को
बंजारा बना दिया।
काम धंधा सब छूट गया
कामकाजी एक इंसान को
नकारा बना दिया।।
अपना घर तो छूटा सो छूटा
दूसरे में ताका झांकी की
वहां भी कुर्सी ना मिल पाई।
राजनीति के मोहपाश में
हाथ आई कुर्सी छूट गयी
और फिर दोबारा ना मिल पाई।।
ना राजनीति में कुर्सी मिली
ना राजनीति से बाहर मिली
कुर्सी कुर्सी खेलते रह गए।
कुर्सी का ख्वाब देखा था मगर
ख्वाब ख्वाब हि रह गए बस
पाया कुर्सी का देखते रह गए।।
वीर कुमार जैन ‘अकेला’
29 सितंबर 2021