कुमावत बैंगलोर
टुकुर टुकुर वो आखों से ताके
जुबां से कुछ कह ना पाये
सावन की हरियाली भी
दिल की अगन बढ़ा जाये ,
पिया गए परदेश जो हमरे
नैनन में जल छोड़ गए
प्रेम की बगिया में लगाके विरह का पुष्प
वो ऐसे क्यों मुह मोड़ गए,
बारिश की हर बुँदे अब तो
अगन की चिंगारी सी लगती है
सुर्ख हुए ये अधरे अब तो
गम की मारी सी लगती है,
सृंगार हुयी है विधवा अब तो
बिन सावन उस चातक जैसा
सुखी पड़ी है झीले आखों की
प्यासा खड़ा उदधि पे जैसा ,
रंगो में अब तुम ही हो
खली पड़े तो गम ही हो
ना समझे क्यों वेदना हमरी
हर वक्त ढले तो तुम ही हो ,
क्यों रोम रोम अब हर्षाया है
क्यों तुमने बरसो से तरसाया है
आ भी जाओ,अब बात भी मानो
क्यों दिल का पुष्प मुरझाया है || ##
Kumawat Bangalore…………