* कुफ्र *
डा ० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
कुफ्र
अब बेखुदी का माहौल है चारों तरफ
आदमी से आदमी को खौफ है हर तरफ ||
मैं नहीं कह्ता की आप को भी रहा होगा कभी
ये इश्क है जनाब, ये हर किसी को होता भी नही ||
मानिये मत मानिये इन्सानियत को हर जगह पायेंगे
ये और बात हैं इन्सनियत को आजकल पूछ्ता है कौन ||
मैने झुक कर एक इन्सान को सलाम क्या कर दिया
वल्लाह कुफ्र को दे दी दावत बा खूदा उस ही रोज ||
उसकी गर्दन में बल न पड जाये मौला मिरे दुआ करता हुँ
एक बार कर दी खता फिर न करने की कसम लेता हुँ ||
आशिकी से बचा बमुश्किल, आशिकों के बीच हुँ आ फँसा
चूम चूम के इन्होने मेरे शेरों का हाशिया ही तंग कर दिया ||
अब न आऊँगा सजन तेरी गली, भूल कर भी मैं
तेरे आशिकों ने तो मुझ गरीब का हुक्का ही बन्द कर दिया ||
चलो मामूल पर ले आएँ फिर से ये जिन्दगी
कुछ तुमको समझना चाहिए कुछ मैं भी सीखता हुँ सखी ||
अभी अभी दहशत भरे ख्वाब से मिरि आँख खुल् गई,
दो महिने भी नही बीते है, इश्क इतना सर चढ़ गया ||
अबोध बालक था तजुर्बा भी नही था हालात का मुझे
सिर्फ उनकी बात का यकीन था वो थे और ये अरुण अतृप्त
अब बेखुदी का माहौल है चारों तरफ
आदमी से आदमी को खौफ है हर तरफ ||
मैं नहीं कह्ता की आप को भी रहा होगा कभी
ये इश्क है जनाब, ये हर किसी को होता भी नही ||
मानिये मत मानिये इन्सानियत को हर जगह पायेंगे
ये और बात हैं इन्सनियत को आजकल पूछ्ता है कौन ||