कुपमंडुक
कुपमंडुक की आँखों से तुम मत देखो ये अंतहीन दुनिया,
जिसमे सब रंग एक नहीं पर हो जाता सब एक ही है;
छिछला खुरदुरा खार भिंगा और शायद फिलसन भरा,
हर सतह का विवरण एक नहीं पर हो जाता सब एक ही है।
खुशबू आती नहीं है कोई अब इत्र के गलियारों से,
हर फूल में काटें नहीं है पर हो जाता सब एक ही है;
मौसम भी बदलते है शायद छोड़कर मेरे घर का आँगन,
हर घर एक सा नहीं है पर हो जाता सब एक ही है।
भाषा किताब की कोई भी हो हाथों में आए या पूरी दीवार में,
हर शब्द एक-दूजे से होता भिन्न है पर हो जाता सब एक ही है;
गाँव का हो या शहर का हो भीड़ का साथी या तन्हा राहों का,
कूपमंडुक के रंग-रूप-नाम अनेक हैं पर हो जाता सब एक ही है।।