कुदरत का वार
कुदरत का वार
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कुदरत के
एक ही वार से
हो गए हो अस्त -पस्त
कर दी है एक ही चोट से
सारी व्यवस्था,अर्थव्यवस्था
अस्त-व्यस्त-निरस्त-विध्वंस्त
करते थे खूब मान-गुमान
निज शक्ति,योग्यता,कुशाग्रता पर
धरा का धरा रह गया
तेरा स्वाभिमान-अभिमान-सम्मान
कर दिया है तुझे मजबूर
घर पर बना बेरोजगार-मजदूर
बंद किया निज कालकोठरी मैं
निज स्वेच्छा से दिन रात कैद
जहां में शोक था खूब तुझे
परिंदों को पिंजरों में करना कैद
हंसता था खिलखिलाकर
छीन कर आजादी बेजुबान की
कैसा करता है अब तछ महसूस
जब नभचर नभ में स्वतंत्र
और तुम हो अब परतंत्र
क्योंकि है बहुत आसान
किसी की आजादी छीनना
लेकिन बहुत होता है मुश्किल
देना किसी को आजादी
अब भी समझ जाओ
बचा है वक्त, सुन नादान
जानवर से बन जा इंसान
मत कर प्रकृति से छेड़खानी
करना सीख खूब मान सम्मान
प्राकृतिक रंग बिरंगे स्वरूपों का
भुगत प्रकृति मनोरम-मनोरथ रंग
गर्मी,सर्दी,वर्षा,बंसत,पतझड़
नहीं होगा तू कभी अपंग-विकलांग
जिएगा तू कुदरत की ये सृष्टि
जहाँ-जहाँ,यहाँ-वहाँ,जहाँ-कहाँ
तेरी सुदूर तक जा पाएगी
सुखविंद्र तेरी मानवीय दृष्टि
हो जाए जाएगी संतुष्ट
और तेरी प्यासी आत्मा की तृप्ति
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)