आग़ाज़
कुछ समझ ना पाऊं ये क्या हो रहा है ?
हर शख़्स सहमा – सहमा सा लग रहा है ,
खौफ़ के सन्नाटे हर सम्त पसरे हुए हैं ,
जाने पहचाने से चेहरे अजनबी से बने हुए हैं ,
मज़हब का जुनून इस कदर तारी है ,
फ़िरकापरस्ती की सियासत अवाम पर भारी है ,
सियासत की बिसात पर आम -आदमी मोहरा बना है ,
नफ़रत फैलाकर वोट हासिल करने वालों का जमावड़ा है ,
नोट पर बिकने वाले वोटों की कमी नहीं है ,
नोटों पर ज़मीर बेचने वाले नेताओं की कमी नहीं है ,
सियासत की जंग में सब कुछ जायज़ है ,
दौलत और रसूख़ के दम पर पर हुक़ूमत क़ाबिज़ है ,
बग़ावत की आवाज़ उठते ही दबा दी जाती है ,
इंसाफ़ की गुहार ठंडे बस्तों में क़ैद होकर रह जाती है ,
हैवानियत सर चढ़कर बोलती है ,
इंसानियत बेबस सिसकती रह जाती है ,
न जाने कब ख़त्म होंगे तशद्दुद के ये दिन ,
अम्न-चैन का आग़ाज़ होगा जब इक दिन।