कुछ रूबाइयाँ…
चाहा बहुत दिल से जिसे उसने मुझे चाहा बहुत।
मधुबन सरीखा ही रहा दोनों दिलों का यार रुत।।
ग़म की गली में साथ हरपल वो रहे परछाई बने;
आते गगन में ज्यों सदा सूरज किरण मिलके हैं नित।।//1
तुमसे हुई चाहत मुझे इतनी दिखा सकता नहीं।
हीरा कभी ज्यों स्वयं की क़ीमत बता सकता नहीं।।
माँगों हृदय कुर्बान करदूँ जान अपनी सच कहूँ;
पर मैं मुहब्बत को कभी तुमसे जता सकता नहीं।।//2
ईश्वर डराता तो नहीं फिर क्यों कोई भयभीत है।
सुख-दुख मिलें दोनों यहाँ जीवन लिए ये रीत है।।
पूजा कहीं करना मगर विश्वास इक ज़िन्दा रहे;
संगीत ये इससे सदा गूँजे यहाँ हर गीत है।।//3
सोना कहो चाँदी कहो पीतल कहो चाहे मुझे।
हर रूप में मैं हूँ ख़रा इतना बता दूँ पर तुझे।।
रंगीन हूँ शौक़ीन हूँ नादान मैं बिलकुल नहीं;
आगे मिरे शातिर हठी हारे सदा हरपल बुझे।।//4
हँसके ज़रा बातें करो खुलके हमारे हो चलो।
जब भी मिलो दिल से मिलो चाहत लिए सदक़े मिलो।।
दौलत मुहब्बत जान दिल तेरे हवाले है किया;
अब तो खिलो जानाँ खिलो बन फूल दिल में तुम खिलो।।//5
चाहत ज़ुबाँ पर दिल में तुम दीवानगी लेकर चलो।
अपने पराए को नहीं कुछ फ़र्क तुम देकर चलो ।।
तुमपर फ़िदा होगा ज़माना यार ‘प्रीतम’ सुन ज़रा;
आँखों में उल्फ़त नूर का बस अर्क़ तुम रखकर चलो।।6
शब्दार्थ- प्रकाश/ज्योति
आदत हमारी मान देने की रही बिन भेद के।
मिलते सभी से हम सदा दिल और बिन विच्छेद के।।
इंसान हैं इंसान से चाहत भुला सकते नहीं।
हर कष्ट में साथी बनें हरपल यहाँ बिन ख़ेद के।।
आर. एस. ‘प्रीतम’
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