कुछ रह गया बाकी
कुछ तो हमेशा और,
हर दिन ही रहता है,
मैं तो ‘चुप’ हूँ कब से,
मगर एक ‘शोर’ रहता है…
बरस भी चुका हूँ पूरा,
कभी’बादल’बन के मैं,
जाने क्यूँ ये ‘मन’ में,
मगर ‘घनघोर’ रहता है…
लय गयी ‘किसलय’ गयी,
कंठ ‘शुष्क’ है शेष,
घोर ‘तिमिर’ सी चुप्पी है,
पर क्रौंच सा ‘क्रंदन’ रहता है…
अभी कुछ और ‘तपना’ है,
अभी कुछ और ‘बहना’ है,
अभी कुछ रह गया बाकी,
तभी ये ‘शोर’ रहता है!!!
© विवेक ‘वारिद’*