कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
सजल हुए क्यों नयन प्रकृति के, अन्तस् पे घाव घनेरे!
क्षम्य कहूँ मानव को कैसे…? कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
फल को फल ही रहने देते,
क्यों विस्फोटक रख डाला…?
क्यों दण्ड मिला क्या भूल हुई,
जो धधकी मुख में ज्वाला…?
ओ..! सम्भ्रांत जीव वसुधा के, मानस में क्या है तेरे?
क्षम्य कहूँ मानव को कैसे…? कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
हरित क्षेत्र क्यों बने मरुस्थल,
सूखे क्यों सलिला के तट…?
उलझ गया यंत्रों में जीवन,
बाट जो रहा क्यों केवट…?
अन्वेषण के वातचक्र में, क्यों उजड़े रैन बसेरे…?
क्षम्य कहूँ मानव को कैसे…? कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
नभ, पय, धरणी, अनल, समीरा,
सकल चराचर पूछ रहे..!
मत बन मूक बधिर, ओ क़ुदरत,
तुझसे उत्तर पूछ रहे..!
आस्तीन में विषधर कैसे, डाले बैठे हैं डेरे…??
क्षम्य कहूँ मानव को कैसे…? कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
अंतिम प्रश्न ब्रह्म से मेरा,
कुछ आशंकित मन होगा…?
दम्भ भरा था जिस रचना पर,
उस पर आज रुधन होगा…?
कब तक मौन रहोगे भगवन्..? तोड़ो प्रश्नों के घेरे.!
क्षम्य कहूँ मानव को कैसे…? कुछ यक्ष प्रश्न हैं मेरे..!!
पंकज शर्मा “परिंदा”