कुछ मुक्तक…
मुखड़ा है चंदा का हाला, दमक रहे सब अंग।
देख रूप का उसके जादू, रह जाते सब दंग।
आती इठलाती-बलखाती,पहन नौलखा हार।
पकड़ किसी की कभी न आए, वह अलबेली नार।
आसमान में छाए बादल, हुई दिवस में रात।
सूरज की किरनें अलसाईं, मुरझाए जलजात।
विरहित चकवा-चकवी रोवें, कौन सुने फरियाद।
गरजें खौफ जगाएँ बदरा, हों जैसे जल्लाद।
हमने जग की रीत न जानी, नहीं तुम्हारा दोष।
बोध नहीं था इन बातों का, इसीलिए था रोष।
छोड़ो भी क्या करना करके, उन बातों पर सोच।
बनी रहे रिश्ते-नातों में, वही पुरानी लोच।
कान लगाकर सुनो गौर से, कुदरत की फटकार।
स्वार्थ ग्रस्तता देख तुम्हारी, रही सतत ललकार।
सँभलो-चेतो अब भी मानव, याद करो उपकार।
रौद्र रूप में आ जाए तो, होगा हाहाकार।
आँखें मदिर मस्त कजरारी, बिन कज्जल क्या बात !
मतवाली पलकन में जैसे, सिमटी आकर रात।
लाल-लाल डोरों के पीछे, बैठी छिपकर लाज।
कहाँ चली बनठन कर गोरी, कहाँ गिरानी गाज ?
कितनी खुशियाँ लेकर आया, राखी का त्योहार।
भाई निकला घर से अपने, बहन तक रही द्वार।
अक्षत-रोली-कुंकुम-राखी, सजा रही है थाल।
जुग-जुग जीवे भ्रात हमारा, बने बहन की ढाल।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद