कुछ मत कहो…
कुछ मत कहो…
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कुछ मत कहो…
जब सुनने को कोई तैयार नहीं ,
अपनी ही धुन में है सब ,
अब बन्दगी दीदार नहीं।
प्रेम की भाषा तो बेअक्ल ही समझते हैं,
जो थोड़ा भी अक्लमंद है,
उसे प्रेम पे कोई एतबार नहीं।
कुछ मत कहो…
अब सुनने को कोई तैयार नहीं।
नफरत के शोलों से ,
दहकता ये तन-बदन है।
प्रेम के आँसू तो बीते समय की बात है।
शायद वक़्त ही बेरहम है,
जो साथ नहीं चलती।
परछाईयां ग़मों की ,
संग-संग ही लिपटती।
तमन्ना लिए थे दिलों में ,
बन प्रेम का पुजारी, रोशन जहां करेंगे।
पर अब आरजू और मिन्नतें ,
सुनने को कोई तैयार नहीं।
कुछ मत कहो…
अब सुनने को कोई तैयार नहीं।
होंठों की हंसी तो सब-कुछ बयां करती है,
प्रीत प्यारा हो,या अपना दुलारा हो,
झुकने को अब तैयार नहीं ।
जीवन के हर सफर में,
गुंगों का अब बोलबाला,
वक्ताओं की तो अब यहां पर,
कद्र ही कहाँ है ।
लेखक और कवि जब ,
लिखते यहाँ हकीकत ,
पाठकों की निगाहें ,
उसे अब ढूँढ़ती ही नहीं ।
कुछ मत कहो…
अब सुनने को कोई तैयार नहीं।
उनकी भी ताकीद क्यों सुने वो ,
जिसने उन्हें नवाजा ,
सांसो को दिया धड़कन ,
पल-पल का लेता जायजा ।
जले हुए तृण से फूस की छत तो नहीं बनती ,
जब श्रोता ही न खड़ा तो ,
महफ़िल भी क्यों है सजती।
मुमकिन नहीं अब इस जग में ,
औरों को कुछ समझाना।
भला तो है अब इसी में ,
चुप ही रहे इस जग में ।
कुछ मत कहो…
अब सुनने को कोई तैयार नहीं।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १० /१०/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201