कुछ बिखरती-कुछ संवरती
कुछ बिखरती-कुछ संवरती
इक एहसास तेरे पास से
यूं ही तो न गुजरा होगा
मेरी खामोशी नें तुझसे
जरुर कुछ तो पूछा होगा
तेरा एहसास अब गुजरता नहीं मुझसे होकर
तुम्हारी याद नें कई बार पुकारा होगा
तुमको लिख कर अपने अल्फाजों में
मेरी कविता ने टूट टूट कर कई बार
तब अपने को संवारा होगा
जो कुछ भी बिखरा हुआ है
जहाँ-तहां हर तरफ ,उसे लिखने के लिये
शोर को संगीत में उतारा होगा
न जाने कितनी बार कांच की तरह
बिखर कर चूर चूर हो गये
लग न जाये किरचें किसी अपने को कभी
बड़े ही दर्द से अपने रिश्तों को बचाया होगा ।
दीपाली काल