कुछ बात तो है मेरे भी मन में
कुछ बात तो है मेरे भी मन में,
पर उमड़-घुमड़कर लौट जाती है वापस,
जैसे हवा बहा ले जाती है,
काली बदली को बिन बरसाये,
बहुत पसंद है मुझे अनगढ़ सौंदर्य जंगलों का,
कम ही रास आते हैं ,
बगीचे में सजे गुलाब या मनीप्लान्ट,
डर लगता है कहीं समेट तो न दोगे,
मेरी खुशियों को छोटे-छोटे गमलों में,
सुनती हूँ अक्सर गौरैयों की चहचहाहट,
मेरा मन भी फुदकता है संग संग उनके,
डर लगता है मेरे हिस्से में आँगन होगा या नहीं,
आँखों में भर लेना चाहती हूँ नीले आसमान को,
फिर घूँघट के बाहर कैसे झाँकूंगी,
कैसे निहारूंगी उड़ते परिंदों को,
डर लगता है कहीं रिश्तों के बंधन,
कोमलता छोड़ लौह बेड़ियां बन,
मेरे बढ़ते कदम रोक तो न देंगे।
वर्षा श्रीवास्तव”अनीद्या”