**कुछ बंद कुछ खुले बाजार थे**
**कुछ बंद कुछ खुले बाजार थे**
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मन में उभरते हुए कुछ भाव थे,
कुछ बंद तो कुछ खुले बाजार थे।
पर्दे की चादर में लिपटी पर्दानशीं,
कभी न कभी होते खुले दीदार थे।
मोहब्बत की हवा इस कदर चली,
हम तो उनके इश्क में बीमार थे।
देखते रहे रहगुजर में आते जाते,
हरपल हरदम दर पर पहरेदार थे।
हर बात में जिक्र बार बार फ़िक्र,
नजर की गिरफ्त में तलबगार थे।
ना कोई दुनियादारी की परवाह,
सरेआम खुलेआम मददगार थे।
खोई जवानी की शाम मनसीरत,
उतने मूर्ख जितने समझदार थे।
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सुखविन्द्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)
हम सरेआम उनके मददगार थे।